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जुल्फ लहरा के बिखर जाती है

2122 1122 22
जब कभी छत पे नज़र जाती है ।
उनकी सूरत भी निखर जाती है ।।

पा के महबूब के आने की खबर।
वो करीने से सँवर जाती है ।।

कोई उल्फत की हवा है शायद ।
ज़ुल्फ़ लहरा के बिखर जाती है ।।

इक मुहब्बत का इरादा लेकर ।
रोज साहिल पे लहर जाती है ।।

बेसबब इश्क हुआ क्या उस से ।
वो तसव्वुर में ठहर जाती है ।।

अब न चर्चा हो तेरी महफ़िल में ।
चोट फिर से वो उभर जाती है ।।

हिज्र की बात करूँ क्या उससे ।
बात सुनकर वो सिहर जाती है ।।

याद क़ातिल की तरह चुपके से ।
दिल मे हौले से उतर जाती है ।।

रोज मजबूरियों की दहशत में ।
जिंदगी पर भी क़तर जाती है ।

गर खुदा की है इनायत तुझ पे ।
मौत छूकर भी गुज़र जाती है ।।

-नवीन मणि त्रिपाठी मौलिक अ प्रकाशित

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Comment by Shyam Narain Verma on December 21, 2017 at 3:18pm
"क्या बात है ..... बहुत खूब ... बधाई आप को "
Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 21, 2017 at 3:12pm

आ. भाई नवीन जी, सुंदर गजल हुई है हार्दिक बधाई ।

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