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सबसे छोटा क़ाफ़िया और सबसे बड़ी रदीफ़ पर एक और ग़ज़ल - सलीम रज़ा रीवा


212 212 212 212, 212 212 212 212

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जब तुम्हारी महब्बत में खो जाएंगे बिगड़ी क़िस्मत भी इक दिन संवर जाएगी /

लब तुम्हारी महब्बत में खो जाएंगे बिगड़ी क़िस्मत भी इक दिन संवर जाएगी //

-

तुम मेरे साथ हो, चांदनी रात हो, होंट की बात हो, ज़ुल्फ़ की बात हो /

तब तुम्हारी महब्बत में खो जाएंगे बिगड़ी क़िस्मत भी इक दिन संवर जाएगी //

-

हम नहीं चाँद तारे ये काली घटा गूंचा ओ गुल ये बुलबुल ये महकी फिज़ा /

सब तुम्हारी महब्बत में खो जाएंगे बिगड़ी क़िस्मत भी इक दिन संवर जाएगी //

-

हम गुनहगार है, हम सियह कार हैं, फिर भी रहमो करम पे यकी है हमें /

रब तुम्हारी महब्बत में खो जाएंगे बिगड़ी क़िस्मत भी इक दिन संवर जाएगी //

-

ऐ  रज़ा दर - बदर हम भटकते रहे  प्यार क्या , प्यार का इक निशाँ ना मिला /

अब तुम्हारी महब्बत में खो जाएंगे बिगड़ी क़िस्मत भी इक दिन संवर जाएगी //

-

 "मौलिक व अप्रकाशित"

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Comment by SALIM RAZA REWA on November 15, 2017 at 10:39pm
आदरणीय काली प्रसाद जी,
आपकी ग़ज़ल पर शिर्कत और आपकी महब्बत के लिए शुक्रिया,
Comment by Kalipad Prasad Mandal on November 15, 2017 at 7:52pm

आदरणीय सलीम रज़ा रेवा साहिब, आदाब आपका प्रयास काबिले तारीफ है | दिली मुबारक बाद स्वीकार करे |

Comment by SALIM RAZA REWA on November 15, 2017 at 6:57pm
आ. प्रदीप कुमार पांडेय जी,
आपकी नज़रे इनायत के लिए शुक्रिया.
Comment by SALIM RAZA REWA on November 15, 2017 at 6:56pm
आ. सुशील जी, आपकी महब्बत सलामत रहे, ग़ज़ल पर आपकी नज़रे इनायत के लिए शुक्रिया.
Comment by SALIM RAZA REWA on November 15, 2017 at 6:55pm
आ. छोटे लाल जी,
आपकी नज़रे इनायत के लिए शुक्रिया.
Comment by SALIM RAZA REWA on November 15, 2017 at 6:54pm
जनाब आरिफ साहब,
आपकी नज़रे इनायत के लिए शुक्रिया.
Comment by Afroz 'sahr' on November 15, 2017 at 5:25pm
आदरणीय सलीम रज़ा साहिब इस रचना पर बघाई आपको कहीं कहीं मिसरों में शिल्प कमज़ोर है । ग़ज़ल के चौथे शेर का सानी मिसरा ज़ू मानी हो रहा है तथा " रब "के साथ बहूवचन "तुम्हारी", "आपकी", आदि शब्दों का प्रयोग कथ्य के लिहाज़ से उचित नहीं है । गौ़र कीजिएगा सादर,,,,
Comment by प्रदीप कुमार पाण्डेय 'दीप' on November 15, 2017 at 3:37pm
ज़नाब सलीम रज़ा साहिब!

इस बेहतरीन ग़ज़ल के लिए मुबारकबाद क़ुबूल कीजिए।
Comment by Sushil Sarna on November 15, 2017 at 12:29pm

हम गुनहगार है, हम सियह कार हैं, फिर भी रहमो करम पे यकी है हमें /
रब तुम्हारी महब्बत में खो जाएंगे बिगड़ी क़िस्मत भी इक दिन संवर जाएगी //

वाह आदरणीय सलीम साहिब इस बेहतरीन अशआर की ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई।

Comment by डॉ छोटेलाल सिंह on November 15, 2017 at 11:31am
आदरणीय सलीम रजा साहब आपकी गजल काबिलेतारीफ है बहुत बहुत मुबारकबाद

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