जैसे चमन को फूल कली ताज़गी मिले-
 वैसे ही जिंदगी तुम्हें महकी हुई मिले  
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 ये है दुआ तुम्हारा मुकद्दर  बुलंद  हो-
 तुमको तमाम उम्र ख़ुशी ही ख़ुशी मिले
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 मिलता था जो ख़ुलूस-ओ-महब्बत से हर घड़ी-
 मिलता है आज जैसे कोई अजनबी मिले
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 बैठा हुआ हूँ उनकी गली में ये सोच कर- 
 मुझको कभी झलक तो मेरे यार की मिले
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 या रब मेरे सनम का ना चेहरा उदास हो- 
 उसको तमाम उम्र ख़ुशी ही ख़ुशी मिले
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 मुझको किसी भी शै कि नहीं आरज़ू मगर- 
 ज़ुल्फों की छाँव मुझकॊ सदा आपकी मिले 
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 बू-ए-चमन का लुत्फ़ भला कैसे हो रज़ा -
 मुझको मिले जो फूल सभी कागज़ी मिले  
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 मौलिक व अप्रकाशित" 
Comment
हार्दिक आभार आदरणीय सलीम राज़ा रेवा जी।बेहतरीन गज़ल।
मिलता था जो ख़ुलूस-ओ-महब्बत से हर घड़ी-
मिलता है आज जैसे कोई अजनबी मिले
ताज़गी और ज़िन्दगी में व्यंजन "ग" हर्फ़-ए-रवी है साहिब! अब इसे अंत तक निभाना पड़ेगा.
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