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तन पत्थर है मन पत्थर (एक छोटी बह्र की ग़ज़ल 'राज')

२२ २२ २२ २

खुद ही काटे अपने  पर

क्या धरती अब क्या अम्बर

 

कोई खिड़की न कोई दर

कितना उम्दा अपना  घर

 

दुनिया तेरी धरती पर  

अपनी हद बस ये गज भर

 

बंद कफ़स हो चाहे खुला

तुझको अब कैसा है डर

 

सारा आलम  रख ले तू

मेरी अब परवाह  न कर

 

मेरी अपनी मंजिल है

तेरी अपनी राह गुज़र   

 

बेजा  अब हैं तीर तेरे  

तन पत्थर है मन पत्थर 

मौलिक एवं अप्रकाशित 

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on November 1, 2017 at 10:02am

आद० कालीपद प्रसाद जी ,आपका दिल से बहुत बहुत शुक्रिया 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on November 1, 2017 at 10:01am

आद० मोहम्मद आरिफ जी ,आपको ग़ज़ल पसंद आई दिल से बहुत- बहुत शुक्रिया .

Comment by Sheikh Shahzad Usmani on October 31, 2017 at 11:12pm
दार्शनिक विचारों से ओत-प्रोत बेहतरीन ग़ज़ल के लिए तहे दिल से बहुत-बहुत मुबारकबाद मुहतरमा राजेश कुमारी जी। मुझे छोटी बह्र पर लिखी इस तरह की ग़ज़लें मददगार साबित होती हैं ग़ज़ल प्रशिक्षण के लिए। हार्दिक धन्यवाद।
Comment by डॉ छोटेलाल सिंह on October 31, 2017 at 12:20pm
आदरणीया आपकी रचना बहुत ही धारदार जीवन्त भाव समेटे हुये तनमन को छू गयी बधाई हो
Comment by Ajay Tiwari on October 31, 2017 at 12:19pm

आदरणीया राजेश कुमारी जी,

उम्दा ग़ज़ल हुई है. हार्दिक शुभकामनाएं.

क्या धरती अब क्या अम्बर > अब क्या धरती, क्या अम्बर 

कोई खिड़की न कोई दर > न कोई खिड़की, न कोई दर

शायद ये सूरतें बेहतर हों. यह एक ख्याल है कोई इस्लाह नहीं. मैं गलत भी हो सकता हूँ.

सादर

Comment by Kalipad Prasad Mandal on October 31, 2017 at 11:31am

आदरणीया राजेश कुमारी जी बहुत सुन्दर ग़ज़ल हुई है \ मुबारकबाद स्वीकार करें | नमन 

Comment by Mohammed Arif on October 30, 2017 at 10:28pm
आदरणीया राजेश कुमारी जी आदाब, बहुत ही बेहतरीन ग़ज़ल । शे'र दर शे'र दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल करें । बाक़ी गुणीजन अपनी राय देंगे ।

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