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हुआ क्या आपको जो आप कहती बढ़ गयी धड़कन

अजब सी है जलन दिल में ये कैसी है मुझे तड़पन
उसे अहसास तो होगा बढ़ेगी दिल की जब धड़कन'

दिखा है जबसे उसकी आँखों में वीरान इक सहरा

मुझे क्या हो गया जाने कहीं लगता नहीं है मन

गले को घेर बाँहों से बदन करती कमाँ जब वो'

मुझे भी दर्द सा रहता मेरा भी टूटता है तन

वो रो लेती पिघल जाता हिमालय जैसा उसका गम

मगर सूरज के जैसे जलता रहता है मेरा तन मन

'नज़र मिलते ही मुझसे वो झुका लेते हैं यूँ गर्दन

ये मंज़र देख उठती है लहर क्यों खो गया बचपन

वही ज़ुल्फ़ें जिन्हें मैं खींचता था छेड़खानी में

उन्ही ज़ुल्फ़ों को बिखरा देख अब छाता है पागलपन

'लड़ाना नैन खेलों में सुकूँ देता था बचपन में

जवानी में वही दिल को दिया करता है सूनापन

नजर मिलते ही मुझसे झुकती उसकी पलकें औ गर्दन

ये मंजर देख उठती है काशिस क्यूँ खो गया बचपन

जवानी है यही आशू जवानी में यही होता
बढ़ी धड़कन थमी सांसें निगाहों में दिवानापन


मौलिक व अप्रकाशित

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Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on September 29, 2017 at 4:32pm
बहुत ही खूबसूरत भाव हुए आदरणीय डा. साहब
Comment by Dr Ashutosh Mishra on September 28, 2017 at 6:34pm
आदरणीय समर सर आदरणीय रवि सर आदरणीय भाई नीलेश जीआपके मशविरे पर अमल करते हुए एक बार फिर प्रयास किया है यह प्रयास सही है अथवा नहीं कृपया मार्गदर्शन का कष्ट करें सादर
Comment by Dr Ashutosh Mishra on September 27, 2017 at 6:01pm
आदरणीय भाई नीलेश जी आपकी रचनाओं को पढ़कर अभी कितना सुधार करना है समझ में आता है लेकिन कमियां रह जाती है आपके मशविरे पर अल करूंगा रचना कॉलेज लाइफ में लिखी थी अब परिवर्तन कर रहा हूँ इस पर आप सबकी प्रतिक्रिया चाहूंगा ऐसा न ही जिस परिवर्तन को मैं सही माँ रहा हूँ वो किसी और दृष्टि से गलत हो आप सबके साथ लिखते हुए मुझे विश्वास है किसी न किसी दिन कियी सही ग़ज़ल मैं लिख सकूंगा इसी तरह मार्गदर्शन करते रहे सादर
Comment by Dr Ashutosh Mishra on September 27, 2017 at 5:55pm
आदरणीय रवि सर आपकी विस्तृत प्रतिक्रिया के लिए ह्रदय से आभारी हूँ आदरणीय समर सर और आपके मशविरे को ध्यान में रखते हुए पुनः प्रयास किया है । ग़ज़ल में अपनी समझ के अनुरूप सुधर किया है ये वो ग़ज़ले ये बहुत पुराणी रचनाएं हैं उन्हें प्रकाशित करने से पूर्व भी समय दूंगा आप को हार्दिक आभार सादर
Comment by Nilesh Shevgaonkar on September 27, 2017 at 4:48pm

आ. डॉ साहब,
अच्छा प्रयास हुआ है ग़ज़ल का..
ज़बान सुधारने के लिए बड़े शायरों की ग़ज़लें पढ़ें/ सुने...भाषा में सुधार होगा.
बधाई 

Comment by Ravi Shukla on September 27, 2017 at 2:22pm
आदरणीय डॉक्टर आशुतोष जी बहुत अच्छा प्रयास हुआ है ग़ज़ल का इसमें आशिक और माशूक के आपसी रिश्तो पर काफी कुछ कहा गया है और वह भाव समझ भी आ रहे हैं और जैसा कि आदरणीय समर साहब ने कहा शिल्प की दृष्टि से और अल्फ़ाज़ की तरकीब के लिहाज से इस संवाद को और बेहतर बनाया जा सकता है एक-एक शेर पर अपने कहने को दोबारा सोचे और शब्दों के विकल्प पर गौर करेंगे तो आपको स्वयं समझ आ जाएगा कि कहां कौन सा लफ्ज़ ज्यादा सही है एक बात जो आदरणीय समर साहब ने हमें भी बताई थी कि उर्दू शायरी में माशूक को भी इशारे से संबोधित करते हैं , तो मतले के उला में आप इस तरह से कह सकते हैं (हुआ क्या आपको जो आप कहते हैं बढ़ी धड़कन) इसी तरह से एक बार नजरें सानी कीजिए । सादर
Comment by Dr Ashutosh Mishra on September 27, 2017 at 1:19pm
आदरणीय समर सर सादर प्रणाम आपके मार्गदर्शन का इन्तेज़ार रचना प्रेषित होने के साथ शुरू हो जाता है आपके मार्गदर्शन से अगली ग़ज़ल लिखते समय सोच को नया आधार मिलता है इस ग़ज़ल को कैसे निखारा जा सकता है आपका मार्गदर्शन चाहिए।मैं अपने स्तर से भी कोशिश कर रहा हूँ सादर
Comment by Dr Ashutosh Mishra on September 27, 2017 at 1:12pm
आदरणीय आरिफ जी उत्साहवर्धन के लिए आभारी हूँ आप सभी के मार्गदर्शन के अनुरूप सुधार करूंगा सादर
Comment by Dr Ashutosh Mishra on September 27, 2017 at 1:02pm
आदरणीय रामबली जी रचना पर आपकी प्रतिक्रिया औ मार्गदर्शन के लिए हृदय से आभारी हूँ । एक बार रचना का पुनरावलोकन कर रहा ही और आपके मार्गदर्शन पर अमल करूंगा सादर
Comment by Samar kabeer on September 27, 2017 at 11:29am
जनाब डॉ.आशुतोष मिश्रा जी आदाब,ग़ज़ल का अच्छा प्रयास हुआ है,बधाई स्वीकात करें ।
शिल्प की दृष्टि से देखें तो कई मिसरे कमज़ोर हैं, उन पर विचार कीजियेगा ।
मक़्ते के बारे में जनाब रामबली गुप्ता जी से सहमत हूँ ।

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