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मेरे भीतर की कविता

मेरे भीतर की कविता
अक्सर छटपटाती है
शब्दों के अंकुर
भावों की विनीत ज़मीन पर
अंकुरित होना चाहते हैं
ना जाने क्यों वे
अर्थ नहीं उपजा पाते हैं
मेरे भीतर की कविता फिर भी
जाकर संवाद करती है
सड़क किनारे बैठे
उस मोची पर जो
फटे जूते सी रहा है
बंगले की उस मेम साहिबा पर
जो अपना बचा फास्ट फुड
डस्टबिन में फेंककर
ज़ोर से गेट बंद करके
अंदर चली जाती है
लेकिन
अनुभूतियाँ ज़ोर मारती है
पछाड़े खाकर गिर जाती है
हृदय की धड़कन पर
ना जाने क्यों मैं
एक अच्छी कविता
नहीं लिख पाता हूँ
मैं शब्दों की सच्चाई का अपराधी हूँ ।
मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Mohammed Arif on April 18, 2017 at 7:12pm
आदरणीय आली जनाब मोहतरम समर कबीर साहब आपकी हौसला अफज़ाई और उत्साह जनक टिप्पणी से लेखन सार्थक हो गया । बहुत-बहुत दिली आभार ।
Comment by Samar kabeer on April 18, 2017 at 6:24pm
जनाब मोहम्मद आरिफ़ साहिब आदाब,वाह बहुत ख़ूब, बहुत बढ़िया अतुकान्त कविता लिखी आपने,इस बहतरीन प्रस्तुति पर दिल से बधाई स्वीकार करें ।

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