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११२  ११२  ११२  ११२  ११२  ११२  ११२  ११२

भँवरे कलियाँ तरु  झूम उठें जब फाग बयार करे बतियाँ|

दिन रैन कहाँ फिर चैन पड़े कतरा- कतरा कटती रतियाँ|

कविता, वनिता, सविता, सरिता ढक के मुखड़ा छुपती फिरती|

जब रंग अबीर लिए कर में निकले किसना धड़के छतियाँ|

 

नव लाल गुलाल मले मितवा हँसती सखियाँ हँसती नगरी|

कजरा लहका गज़रा महका  मुख लाल हुआ पिघली सगरी|   

तन काँप उठा धड़का जियरा चुप देह रही चुप होंठ हिले|    

पर बोल पड़ी अँखियाँ पगली छलकी झट प्रीत भरी गगरी|

मौलिक एवं अप्रकाशित  

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on March 6, 2017 at 5:28pm

आद० डॉ० आशुतोष जी ,आपको ये दुर्मिल सवैया मुक्तक पसंद आये बहुत बहुत आभार आपका आपको भी होली की शुभकामनाएँ

मेरे ब्लॉग पर आप मेरे लिखे हुए सब छंद पढ़ सकते हैं . 

Comment by Dr Ashutosh Mishra on March 6, 2017 at 4:05pm

आदरणीया राजेश जी इस अंदाज में आपको पहली बार पढ़ा बहुत ही बढ़िया होली की हार्दिक शुभकामनाये और हार्दिक बधाई सादर 

कृपया ध्यान दे...

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