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कृपा करो जगदीश हे! करो जगत कल्याण।
प्रेम दया सद्भाव दो, हो शुभ तन-मन-प्राण।।1।।

हो कण-कण में व्याप्त तुम, हे! जग पालनहार।
पद-पावन में तीर्थ सब, है सुरसरि की धार।।2।।

सदा तुम्हारी भक्ति में, रहूँ समर्पित नाथ!
ऐसा दो वरदान अब, रखो शीश पर हाथ।।3।।

प्रभो! सकल ब्रह्माण्ड के, एक तुम्ही हो नाथ।
सदा कामना है यही, रहे कृपा-कर माथ।।4।।

सूर्य-चंद्र-तारक सभी, जीव-जन्तु इत्यादि।
सबका तुम से अंत हरि! है तुमसे ही आदि।।5।।

चतुर्वेद-वेदांग औ' सभी धर्म-ग्रंथादि।
पार न हरि का पा सके, जान न पाये आदि।।6।।

हे हरि! उर पावन करो, दो नित निर्मल ज्ञान।
सदा जगत हित हेतु ही, निकलें मेरे प्रान।।7।।

जो मानवता हेतु है सदा समर्पित आज।
सच्चा ईश्वर भक्त वह यही भक्ति का राज।।8।।

जिनके मन में हो भरा, दया-प्रेम-सद्भाव।
पार उतारें हरि सदा, उनकी डगमग नाव।।9।।

कर दो ज्योतिर्मय हृदय, हरि! हर लो अज्ञान।
धन-जन-बल-सौंदर्य का, कभी न हो अभिमान।।10।।

इस नश्वर संसार में, शाश्वत है नर-धर्म।
मनुज भले मिटता यहाँ, मिटे न उसका कर्म।।11।।

निज सद्कर्मों से यहाँ कर लो जीवन धन्य।
रखो नये प्रतिमान यूँ, चलें उन्हीं पर अन्य।।12।।

असत-अधर्म-अनीति से, जो नित साधें स्वार्थ।
अंत हेतु उनके सदा, जन्में श्री-हरि-पार्थ।।13।।

मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by रामबली गुप्ता on February 8, 2017 at 7:05pm
'राज' शब्द के प्रयोग पर
Comment by रामबली गुप्ता on February 8, 2017 at 7:04pm
आद0 भाई मिथिलेश वामनकर जी सराहना एवं प्रोत्साहन के लिए हृदय से आभार। 'राज' के प्रयोग पर आशंकित हो रहा हूँ जरा एक बार देख लीजियेगा। सानुरोध
Comment by रामबली गुप्ता on February 8, 2017 at 7:04pm
आद0 भाई मिथिलेश वामनकर जी सराहना एवं प्रोत्साहन के लिए हृदय से आभार। 'राज' के प्रयोग पर आशंकित हो रहा हूँ जरा एक बार देख लीजियेगा। सानुरोध
Comment by रामबली गुप्ता on February 8, 2017 at 7:00pm
आद0 भाई नरेंद्र सिंह चौहान जी आपका बहुत बहुत आभार
Comment by रामबली गुप्ता on February 8, 2017 at 6:59pm
सराहना एवं प्रोत्साहन के लिए हृदय से आभार आद0 भाई बृजेश कुमार जी

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on February 8, 2017 at 3:53pm

आदरणीय रामबली गुप्ता जी, बहुत बढ़िया दोहावली हुई है. हार्दिक बधाई. सादर 

Comment by narendrasinh chauhan on February 8, 2017 at 1:03pm

आदरणीय बहुत सुन्दर दोहे

Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on February 7, 2017 at 10:33pm
आदरणीय बहुत सुन्दर दोहे हार्दिक बधाई
Comment by रामबली गुप्ता on February 7, 2017 at 1:14pm
सादर आभार आदरणीय समर भाई साहब एवं आदरणीय भाई अशोक रक्ताले जी। आद0 भाई अशोक जी वास्तव में जिन बिंदुओं पर आपने पुनः देखने का सुझाव दिया है उन बिंदुओं पर मैं पहले से ही आशंकित था। किन्तु तत्काल कुछ न सूझने एवं सुधीजनों के सुझाव जानने के लिए ही इन्हें ज्यों का त्यों पोस्ट कर दिया। चूँकि आप सभी ने भी उन्हीं बिंदुओं पर अपनी आशंका व्यक्त की सो मैंने इनमें तदनुरूप संशोधन कर दिया है। आप सभी से पुनः देखने का आग्रह है। इसके अलावा कुछेक बिंदु और हैं जहाँ मैं आशंकित हूँ और आप लोगों के सुझाव की अपेक्षा है। मैंने दोहों में संस्कृतनिष्ठ भाषा को रखा है किन्तु 8वें दोहे में दूसरे पदांत में प्रयुक्त शब्द 'राज' का जो आशय मैंने लिया है शायद वह संस्कृतनिष्ठ भाषा से निकल कर नही आता। अतः 'राज' शब्द प्रयुक्त करना उचित रहेगा या नही इस पर आप सभी के सुझाव की प्रतीक्षा है। पुनश्च धन्यवाद
Comment by रामबली गुप्ता on February 6, 2017 at 6:56pm
सादर धन्यवाद भाई मुहम्मद आरिफ जी।

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