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बियाबान-सी रात, मद्धम है चाँदनी
एक अधूरे रिश्ते के आकुलित अनुभव
बिखरे-बिखरे-से... कोने-कोने में
बेचैन इस दर्द भरे अन्धेरे में
चेहरे पर भय की रेखाएँ

माना कि बीच हमारे अब कोई दीवार
बहुत ऊँची बहुत ऊँची
ढरते-भुरते विश्वास के आईने पर
घावों की छायाओं के धब्बेे
भी गहरे अब बहुत गहरे

फिर भी कुछ जीवित है

समय की टूटी सीढ़ी चढते
क्षण-भर को भी भाव-विभोर हो
आ सको तो आओ
पाओ मुझमें कुछ जो अनन्तों से अनन्तों तक
तुम्हारे लिए अभी भी बदला नहीं

सुन लो यदि तुम यह गहरी घायल पुकार
परम्पराओं को तोड़ तुम आओ, तुम आओ
मेरे अंतर की सांकल खटखटाओ
पीड़ाएँ, दुख की कथाएँ,मैं सब कह दूँ तुमसे
मन करता है, उचटते मन को हलका कर लूँ

निज चेतस पीड़ा की वाणी सुनकर 
किसी खोये को खोजती यदि आओ तुम
आस्था की परीक्षा लेते मेरे अनुभवों को
कोमल स्पर्ष से सहलाकर
बंधी पड़ी उलझीे गाँठों की गिरह सुलझाओ तुम

ऐसे में संभवत: पहचानों तुम 
मेरे संवेदन सत्यों को
भोले विश्वास की सरलता से आलोकित 
प्रज्वलित स्नेह-रत्नों को
झील के पानी-सी काँप रही चाहे कब से आस्था मेरी

है, कुछ तो है आज
दु:स्वप्न-सी इस बियाबान-रात में
लगातार चिनगियाँ बरसाते
डरे-डरे भयानक ख़यालों की आग में
याद आ रही हैं चोट करती कटाक्ष-सी धारदार बातें 

थके हुए, गिरते-पड़ते, आशंकाहत 
भयभीत ख़्यालों की सीढियाँ चढ़ते 
ऐसे में मुझको अकस्मात लग रहा है डर ...
मैं करूँ आँसूओं-सिंची मूक वेदना का इज़हार, और तुम 
उपहास-सी मुस्कान लिए कहीं उसे भी शिकायत कह दो

बहुत दुखता है मन !

             ----------

-- विजय निकोर

(मौलिक व अप्रकाशित)

Views: 828

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Comment by vijay nikore on February 7, 2017 at 5:53pm

आदरणीय भाई समर जी, मुझको इतना मान देने के लिए हृदयतल से आभार।

कविता लिखना मेरे लिए सहज रहा है, परन्तु किसी भी कविता को वांछित गंतव्य तक पहुँचाना कठिन रहा है। यह इसलिए कि भाव उमड़ते ही कविता मानो स्वयं लिख-लिख जाती है, परन्तु वह मुझको संतुष्टि नहीं देती … रह-रह कर मुझको परेशान किए रहती है, मेरे भीतर खलबली मचाए रहती है। कोई शब्द, कोई भावाभिव्यक्ति, कोई बिम्ब, कोई प्रतीक मन में खटकते रहते हैं, और मैं लगातार रचना में परिवर्तन लाता रहता हूँ, जब तक स्वयं को संतुष्टि नहीं मिलती। 

पुन: आपका आभार, आदरणीय भाई।

Comment by Samar kabeer on February 6, 2017 at 11:10pm
जनाब विजय निकोर जी आदाब,संशोधन के बाद कविता पर जो निखार आया है वो क़ाबिल-ए-दाद है,आपका क़लम हमेशा नए पन की तलाश में रहता है,और आपकी तलाश जब कविता का रूप ले लेती है तो एक शाहकार बन जाती है,मैं जिस शाइरी के लिये भटकता हूँ उसकी तस्कीन मुझे आपकी कविता पढ़ने से हासिल हो जाती है,वैसे तो बहुत से लोग कविता लिखते हैं लेकिन सब के क़लम में वो जादूई शक्ति नहीं होती जो पाठक को अपने वश में कर लेती है और ये कवि का सबसे बड़ा कमाल होता है ,मुझे यह कहने में ज़रा भी हिचक महसूस नहीं होती कि आप वाक़ई क़लम के जादूगर हैं ,इस बहतरीन प्रस्तुति के लिये पुनः बधाई स्वीकार करें ।
Comment by Mohammed Arif on February 6, 2017 at 5:52pm
आदरणीय विजय निकोरे जी आदाब , बेहतरीन, भावपूर्ण रचना के लिए बधाई ।
Comment by बृजेश कुमार 'ब्रज' on February 4, 2017 at 9:43pm
वाह आदरणीय विरह वेदना को बखूबी शब्दों में पिरोया है..
Comment by Samar kabeer on February 4, 2017 at 7:07pm
जनाब विजय निकोर जी आदाब,बहुत सुंदर और जज़्बाती कविता,हिज्र की काली रातों को आपके क़लम ने अच्छे शब्दों में बयान किया है,बहुत ख़ूब वाह, इस बहतरीन प्रस्तुति पर दिल से ढेरों बधाई स्वीकार करें ।

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