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2122 2122 212
चाँद को जब भी सवाँरा जाएगा ।
टूट कर कोई सितारा जाएगा ।।

है कोई साजिश रकीबों की यहाँ ।
जख़्म दिल का फिर उभारा जाएगा ।।

सिर्फ मतलब के लिए मिलते हैं लोग ।
वह नज़र से अब उतारा जाएगा ।।

कुछ अदाएं हैं तेरी कातिल बहुत ।
यह हुनर शायद निखारा जाएगा ।।

रिंद है मासूम उसको क्या खबर ।
जाम से बे मौत मारा जाएगा ।।

उम्र गुजरी है वफादारी में सब ।
बेवफा कहकर पुकारा जाएगा ।।

टूट जायेंगी वो दिल की बस्तियां ।
गर तुम्हारा इक इशारा जाएगा ।।

मुंतज़िर वह आरज़ू मायूस है ।
वस्ल का तनहा सहारा जाएगा ।।

ज़ार मिट्टी का है मत इतरा के चल ।
हर गुमां इक दिन तुम्हारा जाएगा ।।

हिज्र में कुछ ज़िद का आलम देखिए ।
वह ज़नाज़े में कुँवारा जाएगा ।।

ठोकरों के बाद भी दीवानगी ।
मैकदों में वह दोबारा जाएगा ।।

ख्वाब में शब् भर रही तुम साथ में ।
दिन भला कैसे गुज़ारा जाएगा ।।

क्या हुआ गर चाँद में कुछ दाग है ।
ईद की ख़ातिर निहारा जाएगा ।।

-- नवीन मणि त्रिपाठी
मौलिक अप्रकाशित

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Comment by मिथिलेश वामनकर on January 25, 2017 at 12:20am

आदरणीय नवीन मणी जी, बहुत बढ़िया ग़ज़ल कही है आपने. शेर-दर-शेर दाद ओ मुबारकबाद कुबूल फरमाएं. सादर 


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Comment by गिरिराज भंडारी on January 24, 2017 at 9:17pm

आदरणीय नवीन भाई , अच्छी गज़ल कही है , हार्दिक बधाइयाँ स्वीकार करें ।

Comment by Naveen Mani Tripathi on January 23, 2017 at 6:15pm
आ0 सुरेन्द्र नाथ सिंह कुश क्षत्रप सर सादर आभार ।
Comment by Naveen Mani Tripathi on January 23, 2017 at 6:13pm
आ0 कबीर सर आपकी सलाह मेरे लिए अमृत के समान है । पूरी तरह से स्वीकार कर रहा हूँ सर । सादर नमन ।
Comment by Naveen Mani Tripathi on January 23, 2017 at 6:13pm
आ0 कबीर सर आपकी सलाह मेरे लिए अमृत के समान है । पूरी तरह से स्वीकार कर रहा हूँ सर । सादर नमन ।
Comment by Samar kabeer on January 23, 2017 at 6:07pm
आप इस नज़्म को छोड़िये,मैंने जो अर्थ दिये हैं वो शब्दकोष के हैं,आप उचित समझें तो "ज़ार"के स्थान पर "जिस्म"कर लें ।
Comment by Naveen Mani Tripathi on January 23, 2017 at 4:44pm
आ0कबीर सर एक नज्म मैंने कहीं पढ़ी थी जिस का जिक्र मैं यहाँ कर रहा हूँ ।
फ़ख्र बकरे ने किया मैं के सिवा कोई नही ।
इस जहाँ में मैं ही मैं हूँ दूसरा कोई नही ।।
जब न मैं मैं बन्द की मगरूर के अश्याब ने ।
जल कर गरदन पर छुरी तब फेर दी कश्याब ने ।
गोश्त चमड़ा और हड्डी जो था इसके ज़ार में ।
कुछ बिका कुछ फिक् गया कुछ लुट गया बाजार में ।
रह गयीं आतें फकत मैं मैं सुनाने के लिए ।
ले गया नद्दाख फिर तांते बनाने के लिए ।
ज़र्ब के सोटे पड़े तो तांत थर्राने लगी ।
मैं के बदले में "तू ही तू "की सदा आने लगी ।

शब्द मैं कहाँ तक लिखने में कामयाब हुआ हूँ यह नहीं बता सकता परंतु यहाँ ज़ार का अर्थ नीचे शरीर दिया गया था । सम्भवतः किसी पाकिस्तानी शायर की नज्म थी ।
Comment by Samar kabeer on January 23, 2017 at 3:03pm
"ज़ार"(czar)यानी,'अंग','शाहान-ए-रूस का लक़ब' ।
"ज़ार" ये शब्द फ़ारसी भाषा का है, इसके अर्थ हैं,'मकान','मक़ाम','अफरात','बुहतात','नाला-ओ-फ़रयाद'
किस भाषा में "ज़ार"का अर्थ 'शरीर'बताया गया है ?
Comment by Samar kabeer on January 23, 2017 at 2:54pm
भाई रवि जी आदाब,मुझे तो इन अशआर में ये दोष नहीं लगता,3रे शैर में शायद आप 'लोग'और चौथे में 'अदाएं' शब्द की वजह से ऐसा महसूस कर रहे हैं ।
Comment by नाथ सोनांचली on January 23, 2017 at 2:49pm
आदरणीय नवीन मणि जी सादर अभिवादन, उम्दा ग़ज़ल कही आपने, दाद के साथ मुबारकबाद कबूल फरमाएँ

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