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2122 2122
नोट बंदी जो चलेगी
सोचता हूँ क्या करेगी।1

जो चलन को कैद करते
क्या भला उनसे लड़ेगी?2

बेचलन होते 'पुराने'
क्या 'नयों' से घर भरेगी?3

काठ की हांडी कहें कुछ
क्या नहीं फिर से चढ़ेगी?4

जो हरें दिन के उजाले
क्या नहीं उनको खलेगी?5

बात क्षणभर की नहीं यह
दूर तक आगे बढ़ेगी।6

थम रहा है शोर अब तो
एक कलिका-सी खिलेगी।7

जो अंधेरों से लड़ेगा
रे सुबह उसको मिलेगी।8

कीजिये मन से 'मनन' तो
आस बन फिर से पलेगी।9
मौलिक व अप्रकाशित @

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Comment

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Comment by Manan Kumar singh on January 18, 2017 at 8:53am
आपका आभारी हूँ आदरणीय गोपाल नारायण जी।ध्यान आकृष्ट करने का शुक्रिया।
Comment by Manan Kumar singh on January 18, 2017 at 8:50am
आपका आभारी हूँ आदरणीया राजेश कुमारी जी।
Comment by Manan Kumar singh on January 18, 2017 at 8:49am
आपका आभारी हूँ आदरणीय गिरिराज भाई
Comment by Manan Kumar singh on January 18, 2017 at 8:49am
आपका आभारी हूँ आदरणीय मिथिलेश जी
Comment by Manan Kumar singh on January 18, 2017 at 8:48am
आपका आभारी हूँ आदरणीय महेंद्रजी।
Comment by Manan Kumar singh on January 18, 2017 at 8:47am
आपका आभारी हूँ आदरणीय समर जी।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on January 17, 2017 at 11:02pm

आदरणीय मनन जी  , बहुत अच्छी सामयिक गज़ल कही है , दिल से बधाइयाँ । 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on January 3, 2017 at 9:35am

आदरणीय मनन भाई , अच्छी सामयिक गज़ल कही है , दिल से बधाइयाँ ।  आ. गोपाल भाई जी बात पर गौर कीजियेगा ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on January 2, 2017 at 11:36pm

आदरणीय मनन जी, बहुत अच्छी ग़ज़ल हुई है। इस प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई। सादर।

Comment by Mahendra Kumar on January 2, 2017 at 3:14pm
अच्छी समसामयिक ग़ज़ल है आदरणीय मनन जी। मेरी तरफ से हार्दिक बधाई। //फूल बन कर ही खिलेगी// को देख लीजिएगा। सादर।

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