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 शर्मो हया के साथ कुछ दीवानगी पढ़ने लगी।
 वो सुर्खरूं चेहरे पे कुछ आवारगी पढ़ने लगी ।।
 
 हर हर्फ़ का मतलब निकाला जा रहा खत में यहां ।
 खत के लिफाफा पर वो दिल की बानगी पढ़ने लगी ।।
 
 वह बेसबब रातों में आना और वो पायल की धुन ।
 शायद गुजरती रात की वह तीरगी पढ़ने लगी ।।
 
 गोया के वो महफ़िल में आई बाद मुद्दत के मगर ।
 ये क्या हुआ उसको जो मेरी सादगी पढ़ने लगी ।।
 
 कुछ हसरतों को दफ़्न कर देने पे ये तोहफा मिला ।
 वो फिर तबस्सुम को लिए मर्दानगी पढ़ने लगी ।।
 
 बहकी अदा तो वस्ल के अंजाम तक लाई उसे ।
 पैकर पे आकर फिर नज़र शर्मिंदगी पढ़ने लगी ।।
 
 नज़दीकियों के बीच में पर्दा न कोई रह गया ।
 मेरी जलालत में मेरी बेपर्दगी पढ़ने लगी ।।
 
 सहमी हुई थी आँख वो सहमा मिला था दिल तेरा ।
 कुछ हिज्र पर गमगीन था नाराजगी पढ़ने लगी ।।
 
 खामोशियाँ थीं लफ्ज पर जज्बात फिर भी थे जवाँ ।
 नज़रों से निकली हुस्न की वो बन्दगी पढ़ने लगी ।।
 
 ये आधियों का जुर्म , पर झंडा वहीँ कायम रहा ।
 अब वो हमारे इश्क़ की हर तिश्नगी पढ़ने लगी ।।
 
 -- नवीन मणि त्रिपाठी
 मौलिक अप्रकाशित
Comment
आदरणीय नवीन मणि त्रिपाठी जी,बहुत बढ़िया ग़ज़ल कही है आपने, शेर-दर-शेर दाद ओ मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं. सादर
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