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आदमी (अतुकान्त कविता)

गौर से देखो...
यह खाता है
पीता है
चलता है
फिरता है
उठता है
गिरता है
हँसता है
रोता है
देखता है
सुनता है
बोलता है
सोचता है
इसके पास
हाथ है
पैर है
दिल है
जिगर है
गुर्दा है
आँख है
नाक है
कान है
जीभ है
त्वचा है
और साथ ही
वह सब है
जो होना चाहिए
मगर फिर भी
यह आदमी नहीं है
क्योंकि
आदमी वह है
जो दो मुँहा हो!

(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by Mahendra Kumar on December 25, 2016 at 7:55am
हार्दिक आभार आदरणीय गिरिराज सर। सादर।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on December 21, 2016 at 4:59pm

आ. महेन्द्र भाई , आदमीयत पर अच्छा व्यंग्य कविता रची , हार्दिक बधाइयाँ ।

Comment by Mahendra Kumar on December 21, 2016 at 12:46pm
आदरणीय मिथिलेश सर, रचना का मान बढ़ाने के लिए आपका बहुत-बहुत आभार। सादर।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on December 20, 2016 at 11:51pm

आदरणीय महेंद्र कुमार जी, बहुत बढ़िया अभिव्यक्ति. व्यंग्य भी प्रभावकारी है. इस प्रस्तुति पर बधाई. 

//वह सब है
जो होना चाहिए
मगर फिर भी
यह आदमी नहीं है
क्योंकि
आदमी वह है
जो दो मुँहा हो!//

Comment by Mahendra Kumar on December 20, 2016 at 6:19pm
हार्दिक आभार आदरणीय सुरेन्द्र जी। सादर।
Comment by नाथ सोनांचली on December 20, 2016 at 3:17pm
आद0 महेन्द्र जी अच्छी बातो से युक्त सटीक कविता है आपकी। हार्दिक बधाई निवेदित हैं
Comment by Mahendra Kumar on December 19, 2016 at 1:56pm
आदरणीय समर कबीर सर, सादर आदाब। कविता आपको अच्छी लगी लिखना सार्थक रहा। बहुत-बहुत शुक्रिया। सादर।
Comment by Samar kabeer on December 18, 2016 at 5:00pm
जनाब महेन्द्र कुमार जी आदाब,बहुत वैचारिक कविता लिखी आपने,अंत में "क्योंकि आदमी वो है जो दो मुंहा हो"अच्छा व्यंग है, इस प्रस्तुति पर दिल से बधाई स्वीकार करें ।

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