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ग़ज़ल - तफ़्सील में गये तो वो ख़ुद से ख़फ़ा मिले ( गिरिराज भंडारी )

221 2121   1221   212 

जो खोजते हैं रोज़ कोई मुद्दआ मिले

तफ़्सील में गये तो वो ख़ुद से ख़फ़ा मिले

 

नफरत मिली है देखिये नफरत से इस तरह  

मजबूरियों में तेल ज्यूँ पानी से जा मिले

 

हारे हुए मिलेंगे जहाँ खार कुछ तुम्हें
मुमकिन है उस जगह से मिरा भी पता मिले"  

 

हम दिल से चाहते हैं उन्हें दाद हो अता 

जो नेवले की जात हो, साँपों से जा मिले

 

बादल बरस के साथ ही ऐलान कर गया

क़िस्मत ही फैसला करे, अब तुझको क्या मिले

 

इंसान ही ज़मीन पे मिल जाये तो बहुत

चाहत नहीं है कोई मुझे देवता मिले

 

हर वक़्त मांगता है वफा , क्या तुझे हुआ ?

ये कौन चाहता है कि उसको गदा मिले

 ************************************

मौलिक एवँ अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Nirmal Nadeem on December 8, 2016 at 2:58am
बहुत खूब क्या बात है। वह वाह वाह

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Comment by गिरिराज भंडारी on December 6, 2016 at 10:50am

आदरणीय बड़े भाई विजय जी ,  सराहना के लिये आपका हार्दिक आभार ।

Comment by vijay nikore on December 6, 2016 at 7:30am

आज  यह पुन: पढ़ी, और यह खूबसूरत गज़ल और भी अच्छी लगी।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on December 5, 2016 at 4:42pm

आदरणीय बड़े भाई गोपाल जी , उत्साह वर्धन के लिये आपका हृदय से आभार ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on December 5, 2016 at 4:42pm

आदरणीय सुनील शाहाबादी भाई , हौसला अफज़ाई का तहे दिल से शुक्रिया आपका ।

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 5, 2016 at 2:04pm

वाह वाह मजा आ गया आ० अनुज . 

Comment by सुनील प्रसाद(शाहाबादी) on December 5, 2016 at 12:15pm
बेहद खूबसूरत शैर बन पड़े हैं दिली दाद कुबूल फरमाए जनाब गिरिराज साहिब।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on December 4, 2016 at 9:26pm

आदरणीय मिथिलेश भाई , हौसला अफज़ाई का तहे दिल से शुक्रिया आपका ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on December 4, 2016 at 8:54pm

आदरणीय गिरिराज सर, बहुत शानदार ग़ज़ल कही है आपने. शेर-दर-शेर दाद कुबूल फरमाएं. सादर 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on December 4, 2016 at 11:05am

आदरणीय बड़े भाई विजय जी , गज़ल पर उपस्थिति और सराहना के लिये आपका हृदय से आभार ।

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