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कितनी दूर निकल आई हूँ , अपनी मंज़िल की तलाश में ।
कुछ देर बैठ लेती हूँ , घनघोर बादलों की छांव में ।

ये सफ़र बड़ा लम्बा है , और दूर तलक जाना है ।
साथी है न हमसफ़र है, फिर भी मंज़िल को पाना है ।

ठंडी हवाएँ करती हैं इशारा,
सुकून देती है ये नदिया की धारा।

खुला आसमान हौंसला बढ़ाता है,
वो लाल पुल रास्ता दिखता है ।

चलो अब चला जाय, उस पुल के पार।
मंज़िल जहाँ कर रही, मेरा इंतज़ार ।

मौलिक और अप्रकाशित

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Comment by Ashutosh Kumar Gupta on August 4, 2016 at 3:38pm
आदरणीय आशुतोष जी सादर आभार
Comment by Dr Ashutosh Mishra on August 4, 2016 at 3:36pm

भाई आशुतोष जी इस सुंदर प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई स्वीकार करें सादर 

Comment by Ashutosh Kumar Gupta on August 4, 2016 at 1:33am
आदरणीय सुरेश जी सादर धन्यवाद
Comment by सुरेश कुमार 'कल्याण' on August 3, 2016 at 8:29pm
आदरणीय आशुतोष जी सुन्दर भावों के लिए हार्दिक बधाई ।
Comment by Ashutosh Kumar Gupta on August 2, 2016 at 1:36pm
श्री श्याम नारायण जी एवं समर साब बहुत बहुत धन्यवाद सादर ।
Comment by Shyam Narain Verma on August 2, 2016 at 11:11am
इस भावपूर्ण कविता के लिए हार्दिक बधाई
Comment by Samar kabeer on August 2, 2016 at 10:14am
जनाब आशुतोष कुमार गुप्ता जी आदाब,इस शानदार प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।

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