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ग़ज़ल - आप सोये, तो जहाँ सोने लगा ( गिरिराज भंडारी )

2122   2122   212 

जानवर भी देख कर रोने लगा

न्याय अब काला हिरण होने लगा

 

आइने की तर्ज़ुमानी यूँ हुई   

आइने का अर्थ ही खोने लगा

 

हंस सोचे अब अलग किसको करूँ  

दूध जब पानी नुमा होने लगा

 

ऐ ख़ुदा ! कैसा दिया तू आसमाँ

था यक़ीं जिस पर, क़हत बोने लगा

 

बदलियों ! कुछ तो रहम दिल में रखो 

चाँद अब तो साँवला होने लगा

 

आग से बुझती कहाँ है आग , फिर

जब्र से क्यूँ ज़ब्र वो धोने लगा ।

 

कल बने आतिश फ़िशाँ शायद , यही

सोच मैं चिनगारियाँ बोने लगा

 

जो खड़ा था सच का परचम थाम के

बातिलों की भीड़ भी ढोने लगा

 

आपसे बेदारियाँ भी, नींदें भी

आप सोये, तो जहाँ सोने लगा

******************************

मौलिक एवँ अप्रकाशित

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on August 1, 2016 at 5:25pm

आदरणीय सुशील भाई , हौसला अफज़ाई का तहे दिल से शुक्रिया आपका ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on August 1, 2016 at 5:25pm

आदरणीय जयनित भाई , ग़ज़ल की सराहना के लिये आपका हार्दिक आभार ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on August 1, 2016 at 5:24pm

आदरणीय रवि भाई , गज़ल पर उपस्थिति और सराहना के लिये आपका हृदय से  आभार । आपकी सलाह पर सोच रहा हूँ , अगर उचित लगा तो सुधार कर लूंगा --  दर अस्ल   भक्ति की चरम मे इतनी करीबी हो जाती है ईश्वर से कि औपचारिक शब्द पीछे रह जाते हैं , इसलिये मै तू लिखा हूँ ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on August 1, 2016 at 5:19pm

आदरणीय शिज्जु भाई , गज़ल की सराहना के लिये आपका हृदय से आभार ।

शब्द -  नुमा  ही सही है , मै सुधार लूंगा , आपका आभार ।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on August 1, 2016 at 5:17pm

आदरणीय आशुतोष भाई , हौसला अफज़ाई का तहे दिल से शुक्रिया आपका ।

आदरणीय शब्दार्थ यहाँ दे देता हूँ  -- 

तर्ज़ुमानी -- अनुवाद

आतिश फिशाँ -- ज्वाला मुखी

जब्र -- अत्याचार

बेदारी - जाग , 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on August 1, 2016 at 5:11pm

आदरणीय समर भाई , हौसला अफज़ाई का दिल से शुक्रिया आपका । आपका सही कहना है आतिश फिशाँ ही लिखना था टंकण त्रुटि हो गई है , सुधार लूँगा , आपका आभार ।

Comment by Shyam Narain Verma on August 1, 2016 at 5:03pm
बेहद उम्दा ...बहुत बहुत बधाई आप को आदरणीय | सादर 
Comment by Sushil Sarna on August 1, 2016 at 4:17pm


बदलियों ! कुछ तो रहम दिल में रखो
चाँद अब तो साँवला होने लगा

गज़ब आदरणीय गिरिराज जी। .....शानदार अहसास .. इस दिलकश ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई सर जी।

Comment by जयनित कुमार मेहता on August 1, 2016 at 3:20pm
आदरणीय गिरिराज भंडारी जी, बहुत अच्छी ग़ज़ल प्रस्तुत की है आपने। हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिये इस प्रस्तुति पर।
Comment by Ravi Shukla on August 1, 2016 at 3:09pm

आदरणीय गिरिरिाज जी भाई जी इस ग़ज़ल के हर शेर पर दिली मुबारक बाद कबूल करें ..

ऐ ख़ुदा ! कैसा दिया तू आसमाँ
था यक़ीं जिस पर, क़हत बोने लगा तू आसमां की जगह तूने आस्‍मा सही हो सकता है पर उससे बह्र नहीं बनेगी तो ये आसमॉंं किया जा सकता है अगर ठीक समझे तो या ए खुदा तूने दिया क्‍या आस्‍माँँ जैसा भी ठीक समझें

बदलियों ! कुछ तो रहम दिल में रखो
चाँद अब तो साँवला होने लगा वाह वाह क्‍या बात है बहुत ख्‍ुाूब

बधाई

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