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वह 'हरामज़ादा' नहीं (लघुकथा)/शेख़ शहज़ाद उस्मानी

माँ-बेटी दोनों अपने पुराने से घर के जंग लगे गेट पर लटके जंग लगे ताले को ग़ौर से देख रहीं थीं। ताले में चाबी लगाने वाली जगह पर एक नन्हा सा पौधा उग आया था, जो उनके कौतुक का कारण था।

अतीत की बातें सोचते हुए माँ ने अपना हाथ बढ़ा कर पौधे को उखाड़ना चाहा, तो बेटी ने उसका हाथ पकड़ते हुए कहा- "अब इसे भी क्या 'हरामज़ादा' कहोगी? यह हरामी नहीं, अपने नसीब का है!" यह कहते हुए उसने कहा - मैं भी इसे ज़िन्दगी जीने दूंगी!"

माँ की आँखों से आंसू छलक पड़े। बेटी बोली- हाँ अम्मा, मैं भी इसे गमले में लगा कर बड़ा होने दूँगी, जैसे तूने मुझे पाल-पोस कर बड़ा कर पढ़ाया लिखाया, बावजूद इसके कि लोग मुझे 'हरामज़ादी' कहते रहे!"

माँ ने बेटी को गले से लगा लिया।

[मौलिक व अप्रकाशित]

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Comment by Samar kabeer on July 16, 2016 at 2:42pm
जनाब शैख़ शहज़ाद उस्मानी साहिब आदाब,बहुत बढ़िया लघुकथा लिखी आपने,कम शब्दों में बहुत कुछ कह दिया,बधाई स्वीकार करें ।
Comment by Rahila on July 16, 2016 at 1:26pm
बहुत खूब ,इस नजरिये से ताले में लगे नन्हे पौधे को शायद ही किसी ने देखा हो।बहुत ही बेहतरीन रचना आदरणीय उस्मानी जी ।हार्दिक बधाई ।सादर

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