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क़िताब ख़ास लिखी जाएगी जो आज कोई (ग़ज़ल 'राज ')

1212  1122  1212  112/22

बह्र –मुजतस मुसम्मन मख्बून मक्सूर

 

तनाव से ही सदा टूटता समाज कोई

लगाव से ही सदा फूलता रिवाज कोई

 

पढ़ेगी कल नई पीढ़ी उन्हीं के सफ्हों को

क़िताब ख़ास लिखी जाएगी जो आज कोई

 

न ख़्वाब हो सकें पूरे कहीं बिना दौलत

बना सकी न मुहब्बत गरीब ताज कोई

 

सियासतों में बगावत नई नहीं यारों

कभी चला कहाँ आसान राजकाज कोई

 

सभी मिलेंगे यहाँ छोड़कर शरीफों को

कोई फरेबी यहाँ और चालबाज कोई  

 

नचा रहे सभी एक  दूसरे  को यहाँ  

बजा रहा कोई ढपली कहीं पे साज कोई  

 

पँहुचते ही नहीं पैसे गरीब तक पूरे

कमाई ले उड़े जब बीच में ही बाज़ कोई

मौलिक एवं अप्रकाशित 

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Comment by rajesh kumari on July 14, 2016 at 6:43pm

  समर भाई  जी   एक  तो  ये  पढ़ी  थी किसी चिराग  की  नज्म  जो  गुलजार  के लिए  लिखी थी उसने 

 शाख़ ए शहतूत पर बैठा 
रेशम का वो शायर...

गुलअंदाम नज़्में जब वरकों पर पिघलती हैं 
कोई ज़िन्दगी जैसे फर्दों में ढलती है 
हर्फ़ हर्फ़ में उस अहले कलम का दीदार होता है 
चाहे सहरा ही हो आलम गुलज़ार होता है..

शाख़ ए शहतूत पर बैठा 
रेशम का वो शायर 
सफ्हों पे चाँद सितारे चुनता हुआ....

~~~ चिराग 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on July 14, 2016 at 6:34pm

आद० समर भाई जी ,आप हमेशा उर्दू या फारसी शब्दों को लेकर मेरा मार्ग दर्शन करते आये हैं आप मुझसे अधिक जानते हैं इस लिए वर्कों कई जगह पढने के बाद भी मैंने आकी इस्स्लाह के अनुसार अपनी मूल ग़ज़ल में सफ्हों कर लिया है हो सकता वो लिखने वाले भी मेरी तरह इस शब्द को लेकर कम जानकारी रखते हों एक दो जगह वरकों जरूर  पढ़ा है मगर वहाँ मात्रा या बह्र  जैसा कुछ भी नहीं था किन्तु एक बात अवश्य पूछना चाहूंगी --पलक को पलकों कहते हैं तो वरक को वरकों क्यूँ नहीं होता आप बेहतर समझा सकते हैं 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on July 14, 2016 at 6:28pm

आद०  सुशील सरना जी ,आपको ग़ज़ल पसंद आई मेरा लिखना सार्थक हो गया तहे दिल से आभारी हूँ |

Comment by Samar kabeer on July 14, 2016 at 6:17pm
जनाब गिरिराज भंडारी जी आदाब,'वरक़'का बहुवचन 'अवराक़'ही सही है, इसे किसी भी हालत में "वर्क़ों"नहीं किया जा सकता ये सिर्फ़ मेरा कहना नहीं,बल्कि डिक्शनरी का कहना है ।
'साँस'का बहुवचन सांसों या सांसें ही होता है कि ये शब्द हिंदी भाषा का है,"अनफास"शब्द अरबी भाषा का है जो 'नफ़्स'का बहुवचन है, जिसका अर्थ सांसें भी ले सकते हैं,इस लिहाज़ से "वर्क़ों"किसी भी तरह जाइज़ और सही नहीं है,वैसे आप अपनी जगह स्वतन्त्र हैं कुछ भी खयाल कर सकते हैं,लेकिन शायरी में इस शब्द को क़तई तौर पर नहीं लिया जा सकता ।
बहना का आपकी टिप्पणी के बाद ये कहना कि उन्होंने ये शब्द "वर्क़ों"कई नज़्मों और ग़ज़लों में पढ़ा है, सरासर ग़लत है, वो इसकी एक मिसाल भी पेश नहीं कर सकेंगी । वैसे बहना भी अपनी जगह पूरी तरह आज़ाद हैं,लेकिन जो ग़लत है वो ग़लत ही रहेगा ।
Comment by Sushil Sarna on July 14, 2016 at 2:45pm

सभी मिलेंगे यहाँ छोड़कर शरीफों को
कोई फरेबी यहाँ और चालबाज कोई

वाह क्या बात है आदरणीया राजेश कुमारी जी .... बहुत ही दिलकश अशआर बने हैं ... इस खूबसूरत ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई।

Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on July 14, 2016 at 2:05pm

अच्छे अश’आर हुए हैं आदरणीया राजेश कुमारी जी, दाद कुबूल  कीजिए


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on July 14, 2016 at 12:10pm

आद० गिरिराज जी ,आपको ग़ज़ल पसंद आई मेरा लिखना सार्थक हुआ इस जर्रानवाजी बेहद शुक्रिया |आपने जो कहा मैंने भी वाही सोचा था वैसे भी वर्कों बहुत सी नज्म ग़ज़लों में पढ़ा है इसलिए मैं इसे लिख सकी |


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on July 14, 2016 at 11:56am

आद० डॉ० आशुतोष जी ,आपको ग़ज़ल पसंद आई तहे दिल से बहुत- बहुत शुक्रिया | 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on July 14, 2016 at 11:56am

प्रिय राहिला जी ग़ज़ल पर शिरकत और सुखन नवाजी का तहे दिल से शुक्रिया .


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on July 14, 2016 at 11:55am

आदरणीया राजेश जी , बहुत खूबसूरत गज़ल से नवाज़ा है आपने मंच को , आपको हार्दिक बधाइयाँ गज़ल के लिये ।

आदरणीया ,

वर्क का बहुत वचन  वैसे अवराक  221  भी होता है । फिर भी मै वर्कों को गलत नही समझता , जब सांस का बहु वचन सासों सही है,  अनफास के होते हुये तो , मुझे वर्कों से भी कोई आपत्ति नही है । वैसे ये केवल मेरा खयाल , ज़रूरी नही किसे और से मेल खाये ।

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