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मायाजाल ...

ये मकड़ी भी
कितनी पागल है
बार बार गिरती है
मगर जाल बुनना
बंद नहीं करती
बहुत सुकून मिलता है उसे
अपने ही जाल के मोह में
स्वयं को उलझाए रखने में
वो स्वयं को
वासनाओं के जाल में
लिप्त रखना चाहती है
शायद वो जानती है
जिस दिन भी वो
अपना कर्म छोड़ देगी
वो अपनी पहचान खो देगी
पाकीज़गी उसे मोक्ष तक ले जाएगी
लेकिन इस तरह का मोक्ष
कभी उसकी पसंद नहीं होता
उसे तो अपनी वही दुनियां पसंद है
जिसे उसने अपनी
आपूरित वासनाओं की पूर्ती के लिए
जाल के रूप में सृजित किया है
इसीलिये वो बार बार गिर के भी
अपनी दुनिया को बुनती है
वो चाहती है कि ग़र
उसका आगाज़ ये मायाजाल है तो
अंत भी यही मायाजाल हो

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by Sheikh Shahzad Usmani on June 13, 2016 at 5:26pm
हम सब ऊपर वाले की बनाई हुई डिवाइस हैं, जिनमें कुछ कोमन और कुछ भिन्न भिन्न सोफ्ट वेअर व एप्लीकेशन्स स्थापित क्रियान्वित हैं। ओपरेटर जिससे जो काम जब तक करवा रहा है करना ही होगा अनुबंध के अनुसार। बहुत बढ़िया संदेश सम्प्रेषण करती रचना के लिए हृदयतल से बहुत बहुत बधाई आपको आदरणीय सुशील सरना जी।
Comment by Rajendra kumar dubey on June 13, 2016 at 4:15pm
जिस दिन भी वो अपना कर्म छोड़ देगी
वो अपनी पहचान खो देगी।सही कहा है आदरणीय सरनाजी आपने आदमी की पहचान उसके कर्मों से ही होती हैं।हम तो आपके शब्दों के मायाजाल में उलझ गए है।आपको हार्दिक बधाई।

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