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ख़िज़ाओं का नहीं होता दरख़्तों पर असर कोई (ग़ज़ल)

1222 1222 1222 1222

गया है सींचकर जो बाग़-ए-दिल को, इक नज़र कोई
ख़िज़ाओं का नहीं होता दरख़्तों पर असर कोई

दिलों के दरमिया इक़रार कोई हो गया था,पर
न थी उनको ख़बर कोई, नहीं मुझको ख़बर कोई

मुक़द्दर हर किसी पे मेह्रबां होता नहीं यारो
कहीं क़दमों में है मंज़िल, भटकता दर-ब-दर कोई

भरोसा है हमें चारागरी पर हद से भी ज़्यादा
मरीज़-ए-इश्क़ पालेगा न मर्ज़ अब उम्र-भर कोई

सियासत खून पीने की बड़ी शौक़ीन लगती है
छुड़ा पाता ये चस्का खून का ऐ काश अगर कोई

तड़पकर-चीखकर इंसानियत, है आज मरणासन्न
कोई देता नहीं क्यों,दे ही दे अब तो ज़हर कोई

ख़लिश-कांटो भरी है, जो डगर जाती ख़ियाबां तक
न राह-ए-क़ामयाबी है अब इससे मुख़्तसर कोई
================================

जयनित कुमार मेहता
(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by जयनित कुमार मेहता on February 5, 2016 at 9:00pm
आदरणीय रवि शुक्ल जी, हार्दिक धन्यवाद स्वीकार करें।
आपकी बात से सहमत हूँ, सादर।।
Comment by जयनित कुमार मेहता on February 5, 2016 at 8:58pm
आदरणीय मुकेश श्रीवास्तव जी, हार्दिक धन्यवाद स्वीकार करें।।
Comment by जयनित कुमार मेहता on February 5, 2016 at 8:57pm
जनाब सालिम शेख साहब, सुखन नवाज़ी के लिए आपका तह-ए-दिल से शुक्रगुज़ार हूँ।
Comment by जयनित कुमार मेहता on February 5, 2016 at 8:55pm
आदरणीय मिथिलेश भाई जी, आपकी प्रतिक्रिया से काफी उत्साहित हूँ.. हार्दिक धन्यवाद आपका।।
Comment by Samar kabeer on February 5, 2016 at 5:43pm
कोशिश तो यही होना चाहिये की जो शब्द जैसा है वैसा ही इस्तेमाल हो,प्रचलन के सहारे चले तो यही आदत बन जायेगी !
Comment by Ravi Shukla on February 5, 2016 at 10:14am

आदरणीय जयनित कुमार जी पहले तो बढि़या गजल के लिये दिली दाद कुबूल करें । दूसरे हमें भी अलिफ वस्‍ल के अनुसार मिसरे बह्र में लग रहे है आदरणीय तस्‍दीक जी से निवदेन है कि हमारी शंका के समाधान के लिये कृपया खुलासा करें कि  किस लिहाज से ये मिसरे बेबह्र है । हॉं तसकदीक जी की इस बात से हम भी सहमत है कि पांचवे शेर के सानी मिसरे में अगर को गर किया जा सकता है न तो लफ्ज के मानी में कोई फर्क पडेगा न ही अलिफ वस्‍ल का सहारा लेना होगा । सादर । बहर हाल दूसरे शेर की सादगी पर एक बार फिर से दाद हाजिर है ।

Comment by जयनित कुमार मेहता on February 4, 2016 at 9:06pm
आदरणीय तस्दीक़ अहमद खान जी,
सुखननवाज़ी के लिए आपका तह-ए-दिल से शुक्रगुज़ार हूँ।
जनाब, आपने जिन शेरों का ज़िक्र किया है, वे सभी बह्र में ही हैं..
क्योंकि उनमें "अलिफ़-वस्ल" प्रयोग हुआ है इसलिए शेर के बेबह्र होने का भ्रम हो रहा है आपको।
कृपया पुनः तक़्तीअ करें।
सादर।।
Comment by जयनित कुमार मेहता on February 4, 2016 at 8:43pm
आदरणीय समर कबीर जी, आपकी इस्लाह से हमने बहुत कुछ सीखा है..बहुत-बहुत धन्यवाद प्रकट करता हूँ आपके प्रति।

1 उलझन में हूँ, चूंकि उर्दू शब्दों में तद्भव शब्द नहीं होते..यानि प्रचलन का बहाना बनाकर हम उर्दू के शब्दों का बदला हुआ रूप नहीं प्रयोग कर सकते, शब्दों को ज्यों का त्यों लेना पड़ता है।
परंतु जब मैंने इस बात के अपवाद देखे, तो हैरत में पड़ गया.. और अब तो मैं भी (आवश्यकता पड़ने पर) उर्दू शब्दों के बदले हुए रूप का प्रयोग करने का पक्षधर हो गया हूँ।
सादर।।
Comment by MUKESH SRIVASTAVA on February 4, 2016 at 11:13am

मुक़द्दर हर किसी पे मेह्रबां होता नहीं यारो
कहीं क़दमों में है मंज़िल, भटकता दर-ब-दर कोई khoobsoorat gazal ke liye dheron daad mitrwar

Comment by saalim sheikh on February 4, 2016 at 1:27am

बेहद उम्दा! पूरी ग़ज़ल और मतले के लिए बतौर-ए-खास मुबारकबाद कुबूल फरमाएं 

कृपया ध्यान दे...

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