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जतन कछ तो करो पेड़ों भले ही भार जादा अब -(गजल)- लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’

1222    1222    1222    1222

सियासत काम कम करती मगर तकरार जादा अब
बुढ़ापा  चढ़  गया  है  या  पड़ी   बीमार  जादा  अब /1

जवानी   क्या   खुदा  ने  दी  फरामोशी  चढ़ी  सर  पर
लगे कम माँ की ममता जो सनम का प्यार जादा अब /2

बहुत था शोर पर्दे में रखे हैं खूब अच्छे दिन
उठा पर्दा तो  ये जाना  पड़ेगी मार जादा अब /3

कहा हाकिम ने है यारो चलेगी सम विषम जब से
हुए खुश यार  निर्माता  बिकेंगी  कार जादा अब /4

जहर लगती है मुझको तो हवा इस राजधानी की
जतन कछ तो करो पेड़ों  भले ही भार जादा अब /5

चुने जनता  कि कुछ सोचें भलाई  उनके हिस्से भी
मगर खुद की ही सोचे क्यों सदा दरवार जादा अब /6

कमी  सबको  समय  की  है पढ़ें पूरी भला कैसे
कहानी से भला लगता तभी तो सार जादा अब /7

सहज रक्खो कि सुर देंगे मधुर ये जो भी रिश्ते हैं
छिटक  जाएंगे ये  सारे न  खीचो तार जादा अब /8
 
हुआ  है  बोर सुनकर  क्या ‘मुसाफिर‘ बोलता है जो
करो कम यूँ   कलम घिसना हुए असआर जादा अब /9

मौलिक व अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’

Views: 420

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Comment by Shyam Narain Verma on December 31, 2015 at 3:21pm
उम्दा गज़ल के लिए ढेरों मुबारकबाद ....
Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 31, 2015 at 10:51am

आ० भाई गुमनाम जी, ग़ज़ल की प्रशंसा के लिए हार्दिक आभार l

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on December 31, 2015 at 10:47am

आ० कल्पना जी , ग़ज़ल पर उपस्थिति और उरसाहवर्धन के लिए हार्दिक धन्यवाद .

Comment by gumnaam pithoragarhi on December 30, 2015 at 7:18pm

कहा हाकिम ने है यारो चलेगी सम विषम जब से
हुए खुश यार  निर्माता  बिकेंगी  कार जादा अब

वाह अच्छा है भाई जी .........

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