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गजल
2122 2122 122
जब से'मैं बातें बनाने लगा हूँ,
मैं समझ में खूब आने लगा हूँ।
गालियाँ खायी बयाँ की हकीकत,
झूठ कह अब उनको' भाने लगा हूँ।
आरजू थी वे बुला लेते कभी,
मैं अभी उनके ठिकाने लगा हूँ।
तंग था मैं तंगदिल से निभाते,
ठाँव अब दिल में बनाने लगा हूँ।
तर्ज़ भी तब्दील होगी अभी तो,
बात से अब मैं रिझाने लगा हूँ।
गुत्थियाँ उलझी पड़ी थीं कभी की,
हौले'-से बातें बुझाने लगा हूँ।
हो रहा मैं हूँ अदीबो-मुकम्मिल,
उनके' मन का गीत गाने लगा हूँ।
छप गये पर्चे बहुत अब तलक हैं ,
घूम कर मैं अब लुटाने लगा हूँ।
हो गया हासिल समझ ताज अब तो
ताज को लोरी सुनाने लगा हूँ।
'मौलिक व अप्रकाशित'@मनन

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Comment by Manan Kumar singh on November 8, 2015 at 9:17am
आ.राजेश कुमारीजी,आपकी चिंता वाजिब है।शेर बे बहर हो तो उसे काबू में किया जा सकता है,पर उसके बे मतलब होने पर बात बेमतलब वाली हो जाती है।स्पष्ट है कि ताज सम्मान/पुरस्कार की ओर इंगित करता है और आज सम्मान की दशा विदित है।ताज सत्ता का प्रतिक है और के ताजदार(पुरस्कार प्राप्त)लीग क्या सत्ता को लोरी नहीं सुना रहे;कुछ पक्ष को,कुछ विपक्ष को।पक्ष-विपक्ष का पाला तो सियासत में बदलता रहता है।हाँ भाषा की भंगिमा भावों व्यक्त करती है,भंगिमा को बाधित तो नहीं कर सकते न।वैसा होने पर बात अखर ही जाती है,सादर।
Comment by Manan Kumar singh on November 3, 2015 at 10:12pm
आदरणीय गिरिराज भाई,प्रेरणासे पूर्ण आपके स्नेह सिक्त शब्द मेरे लिए सम्बल हैं;आपका बहुत बहुत आभार

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on November 3, 2015 at 8:05pm

आ० मनन कुमार जी ,प्रयास अच्छा  है किन्तु कुछ मिसरे बेबह्र हो रहे हैं जैसे ---

आरजू थी वे बुला लेते कभी

रुख भी तब्दील होगा, मानिये

हो गया हासिल समझ ताज अब तो
ताज को लोरी सुनाने लगा हूँ।------इसका भाव समझ  नहीं  पा रही हूँ ....ताज को लोरियाँ सुनाकर सुलाना  है क्या ?    :-))))

वैसे मनन  जी इस बह्र  का नाम क्या है ? मैं  समझ  नहीं  पा रही हूँ . आपको  हार्दिक बधाई 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on November 3, 2015 at 6:19pm

आदरणीय मनन भाई , गज़ल अच्छी कही है , दिली बधाइयाँ आपको । बाक़ी आदरणीय रवि भाई कह ही चुके हैं , और आपने मिसरे को सुधार भी लिया है । हार्दिक बधाई आपको ।

Comment by Manan Kumar singh on November 2, 2015 at 8:26pm
हाँ आमोद जी,आप क्या इंगित करना चाहते हैं वह अस्पष्ट है।कृपया विषयवस्तु पर केंद्रित हों।
Comment by Manan Kumar singh on November 2, 2015 at 8:24pm
आदरणीय मिथिलेश जी,धन्यवाद आपको।
Comment by Manan Kumar singh on November 2, 2015 at 8:23pm
आदरणीय रवि जी,आपने गजल पर गौर किया,त्रुटि इंगित भी की,आभार आपका।वाकई 'नाम के' के 212 रुक्न में है,ध्यान नहीं गया था।पुनः आभार आपका,सादर।
Comment by amod shrivastav (bindouri) on November 2, 2015 at 2:55pm
रही बहर की बात तो गुरुजन आप को जरूर बतायेगे
Comment by amod shrivastav (bindouri) on November 2, 2015 at 2:54pm
सर आप के प्रयाश का सादर नमन सर गजल में जो भाव डाले बहुत सुन्दर है पर बहर के कारण आप कह नही पाये बात यह है की यह बहर आप के भाव में सेट नही हो रही अतः इन्ही शब्दों को इन्ही भावों को आप फिर बुनने की कोशिस करे यक़ीनन आप बहुत सुन्दर गजल लिखेगे सादर नAमन

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on November 2, 2015 at 2:47pm

आदरणीय मनन जी इस प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई 

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