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भरी दोपहरी मई के महीने में वो दरवाज़े पर आया और ज़ोर ज़ोर से आवाज़ लगाने लगा खान साहब…….. खान साहब……..| मेरी आँख खुली मैंने बालकनी से झाँका | एक ५५-६० साल का अधबूढ़ा शख्स, पुराने कपड़ों, बिखरे बाल और खिचड़ी दाढ़ी में सायकल लिए खड़ा है। मुझे देखते ही चिल्ला पड़ा फलाँ साहब का घर यही है| मैंने धीरे से हाँ कहा और गर्दन को हल्की सी जेहमत दी | वो चहक उठा उन्हें बुला दीजिये | मैंने कहा अब्बा सो रहे हैं, आप मुझे बताएं | उसने ज़ोर देकर कहा, नहीं आप उन्हें ही बुला दीजिये , कहियेगा फलाँ शख्स आया है। मुझे बड़ा गुस्सा आया लोग भी अजीब हैं, जब देखो चंदे और मदद की गुहार लिए आ जाते हैं। न दिन देखते हैं न समय, भरी दोपहरी सबको परेशान करते हैं। मै बुदबुदाते हुए सीढ़ियाँ चढ़ने लगा और अब्बा को आवाज़ दी|

अब्बा नीचे आये सलाम - जवाब के बाद आने का सबब पूछा | अरे खान साहब, ३ महीने पहले आपसे पांच हज़ार रुपये उधार लिए थे। अल्लाह का शुक्र है, सब्जी की दुकान ठीक ठाक चल रही है । ये एक हज़ार रुपये हैं, इंशाअल्लाह आने वाले महीनों में बचे रुपये भी चुका दूंगा और हाँ ये मिठाई बच्चों के लिए लाया हूँ ।

मैंने खुद को दरवाज़े की ओट में कर लिया |

(मौलिक एवं अप्रकाशित) 

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Comment by Dr Ashutosh Mishra on October 30, 2015 at 4:51pm

आदरणीय नादिर जी ...हमारी सोच हमेशा सही नहीं होती ..हर आदमी एक जैसा नहीं होता ..दरवाज़े की ओट में छुपने वाली पंक्तियों ने मन मोह लिया ..लाजबाब इस शानदार लघु कथा के लिए ढेर सारी बधाई सादर 

Comment by kanta roy on October 29, 2015 at 2:39pm

प्राकृतिक मनोभाव का चित्रण हुआ है आपकी रचना में आदरणीय नादिर खान जी।
हमारा दिल ही अपराध को स्वीकार करता है और अपराध बोध से घिर जाता है।
पाक और साफ़ दिल ही अक्सर अपराध कर बैठते है अपनी पाकीजगी में। सोच समझकर चलने वालों की पाकीजगी मुश्किल है कायम रहना ,उनको तो नफा नुक्सान की परवाह अधिक रहती है। अपराध -बोध पवित्र मनो में ही उपजती है सदा। बेहतरीन रचना के लिए बधाई स्वीकार करे।

Comment by Sheikh Shahzad Usmani on October 29, 2015 at 12:11pm
पूर्वाग्रह बहुत ही बुरी चीज होती है,यह अक्सर अपराध बोध वाली परिस्थितियों में डाल देती है। बहुत ही समसामयिक,सार्थक, प्रेरक रचना के लिए जनाब नादिर ख़ान साहब को बहुत बहुत बधाई और शुभकामनाएँ।
Comment by नादिर ख़ान on October 29, 2015 at 10:43am

आदरणीय मिथिलेश जी , आदरणीया प्रतिभा जी एवं  आदरणीया राहिला जी आप सबकी हौसला अफ़ज़ाई पाकर बहुत मुसर्रत हो रही है । चूँकि ये मेरी लाइफ की  पहली लघुकथा है । अव्वल तो मुझे इसके लघुकथा होने पर  भी  मुझे  शक था, क्योंकि इसमें २ चित्र उभर रहे है । गुणीजन इस पर रौशनी डालें तो और सीखने को मिले । आप सभी का एक बार पुनः आभार। 

Comment by Rahila on October 29, 2015 at 9:06am
बहुत उम्दा रचना आदरणीय नादिर खान साहब! बहुत बधाई आपको ।
Comment by pratibha pande on October 29, 2015 at 8:16am

'मैंने खुद को दरवाज़े की ओट में कर लिया ' l  लघु कथा के अंत में  पञ्च या तंज का जिक्र अक्सर होता जो कभी कभी थोपा हुआ सा भी लगता है ,पर आपकी इस एक पंक्ति ने अपराध बोध को जिस  सीधे सरल और जानदार तरीक़े से पाठकों तक संप्रेषित कर दिया वो काबिले तारीफ़ है  ,  बधाई आपको इस सार्थक रचना पर आदरणीय नादिर खान जी 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on October 28, 2015 at 9:49pm

आदरणीय नादिर सर, बहुत बढ़िया लघुकथा हुई है. इस प्रस्तुति पर आपको हार्दिक बधाई. 

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