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ख़्वाब :....

हकीकत के बिछोने पर
हर ख़्वाब ने दम तोड़ा है
नहीं, नहीं
ख़्वाब कहाँ दम तोड़ते हैं
हमेशा इंसान ने ही दम तोड़ा है
हर टूटता ख़्वाब
इक नए ख़्वाब का आगाज़ होता है
हर नया ख़्वाब
फिर इक तड़प दे जाता है
और चलता रहता है
सूखे हुए गुलाबों की
सूखी महक में जीने का सिलसिला
इंसान को शबनमी ख़्वाबों में
फ़ना होने की
आदत सी हो गई है
बस, ख्वाब को मंज़िल समझ
अंधेरों से लिपट कर जीता है
दर्द को साँसों में घोल
घूँट घूँट कर पीता है
ज़िंदगी के फ़टे पैरहन से
रिस्ते दर्द के लम्हों को
अश्कों के धागों से सीता है
सुकून के तलाश में
वो ख़्वाब-दर-ख़्वाब जीता है
ये अंधेरों की दौलत है
अंधेरों में आती है
सहर का ख़्वाब देकर
अंधेरों में खो जाती है
ख़्वाब कभी थकते नहीं
थक जाती है ज़िंदगी
लम्हा लम्हा यूँ ही
गुज़र जाती हैं ज़िंदगी
ख़्वाब तो ज़िंदा रहते हैं
मगर सौ जाती है ज़िंदगी

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment

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Comment by Sushil Sarna on August 28, 2015 at 1:12pm

आदरणीय Harash Mahajan जी रचना पर आपकी स्नेहिल प्रशंसा का हार्दिक आभार। कम्प्यूटर में तकनीकि व्यवधान के करना प्रत्युत्तर न दे सका, विलम्ब के लिए क्षमा चाहूंगा। 

Comment by Sushil Sarna on August 28, 2015 at 1:12pm

आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी रचना पर आपकी स्नेहिल प्रशंसा का हार्दिक आभार। कम्प्यूटर में तकनीकि व्यवधान के करना प्रत्युत्तर न दे सका, विलम्ब के लिए क्षमा चाहूंगा। 

Comment by Harash Mahajan on August 26, 2015 at 1:51pm

आदरणीय Sushil Sarna  जी एक अच्छी रचना के लिए बहुत बहुत बधाई !!


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on August 26, 2015 at 12:46pm

आदरणीय सुशील सरना सर, इस सुन्दर भावाभिव्यक्ति हुई है. इस रचना की प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई 

कृपया ध्यान दे...

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