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पीड़ाओं के इस दलदल में - लक्ष्मण धामी ’मुसाफिर’

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रोने का तुम नाम न लेना रीत बनाओ हँसने की
रोने धोने में क्या रक्खा  होड़ लगाओ हँसने की /1
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माना पाँव धँसे हैं कब से पार उतरना मुश्किल है
पीड़ाओं के इस दलदल में गंग बहाओ हँसने की /2
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परपीड़ा में सुख  मत खोजो ये पथ घेरे वाला है
दूर तलक जो ले जाती है राह बताओ हँसने की /3
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पोंछो आँसू बाढ़ में इसकी खुशियों के घर बहते हैं
निर्जन में भी  यारो  बस्ती रोज बसाओ हँसने की /4
******
सिर्फ हँसी ही यार खुदा  की  सबसे अच्छी नेमत है
घाव लगे हों दिल पर कितने कश्में खाओ हँसने की /5
******
रचना मौलिक और अप्रकाशित



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Comment

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Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 16, 2015 at 9:56am

आ० मनोज भाई , आपको ग़ज़ल अच्छी लगी यह हर्ष का विषय है . हार्दिक धन्यवाद .

Comment by मनोज अहसास on August 15, 2015 at 2:17pm
बहुत खूब सूरत ग़ज़ल
हार्दिक बधाई
सादर

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