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पीड़ाओं के इस दलदल में - लक्ष्मण धामी ’मुसाफिर’

2222    2222    2222    222
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रोने का तुम नाम न लेना रीत बनाओ हँसने की
रोने धोने में क्या रक्खा  होड़ लगाओ हँसने की /1
******
माना पाँव धँसे हैं कब से पार उतरना मुश्किल है
पीड़ाओं के इस दलदल में गंग बहाओ हँसने की /2
******
परपीड़ा में सुख  मत खोजो ये पथ घेरे वाला है
दूर तलक जो ले जाती है राह बताओ हँसने की /3
******
पोंछो आँसू बाढ़ में इसकी खुशियों के घर बहते हैं
निर्जन में भी  यारो  बस्ती रोज बसाओ हँसने की /4
******
सिर्फ हँसी ही यार खुदा  की  सबसे अच्छी नेमत है
घाव लगे हों दिल पर कितने कश्में खाओ हँसने की /5
******
रचना मौलिक और अप्रकाशित



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Comment

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Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 19, 2015 at 10:34am

आ० राजेश दी , उत्साहवर्धन और स्नेह के लिए आभार . त्रुटि की और ध्यान दिलाने के लिए हार्दिक धन्यवाद .

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 19, 2015 at 10:32am

आ० भाई विजय जी , अपनी उपस्थिति से ग़ज़ल का मन बढ़ने के लिए हार्दिक धन्यवाद .


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on August 18, 2015 at 8:41pm

बहुत बढ़िया सार्थक सन्देश देती ग़ज़ल हर अशआर प्रभाव शाली हुआ लक्ष्मण धामी भैया दाद कुबूलें ,हाँ अंतिम मिसरे में कसमें कर लें टंकण मिस्टेक आ गई है |

Comment by vijay nikore on August 18, 2015 at 1:03pm

आपने गज़ल बढ़िया लिखी है। बधाई।

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 18, 2015 at 10:41am

आ० भाई समर जी, उपस्थिति और उत्साहवर्धक टिप्पणी के लिए हार्दिक धन्यवाद .

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 18, 2015 at 10:40am

आ० भाई मिथिलेश जी , आपकी उपस्थिति हमेशा उत्साहवर्धक होती है . स्नेह बनाये रखे l

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 18, 2015 at 10:38am

आ० भाई श्री सुनील जी , उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक आभार .

Comment by Samar kabeer on August 17, 2015 at 10:43pm
जनाब लक्ष्मण धामी 'मुसाफ़िर' जी,आदाब,बहुत ही शानदार ग़ज़ल से नवाज़ा है आपने मंच को ,अच्छे संकेत छुपे हैं आपकी ग़ज़ल में ,शैर दर शैर दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फ़रमाऐं ।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on August 16, 2015 at 10:11pm

आदरणीय लक्ष्मण धामी सर, बढ़िया ग़ज़ल हुई है. शेर दर शेर दाद कुबूल फरमाएं 

सादर 

Comment by shree suneel on August 16, 2015 at 8:06pm
क्या बात है! बहुत ख़ूब.. बहुत ख़ूब! आदरणीय लक्ष्मण धामी जी.
'रोने धोने में क्या रक्खा होड़ लगाओ हँसने की '.. व्वाहह
सार्थक संदेश देती ग़ज़ल.. सारे अशआर बेशकीमती हैं.
हार्दिक बधाई आपको इस ख़ूबसूरत प्रस्तुति पर आदरणीय.

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