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हमें भी न आया 

 

तू ऐसा बीज थी

जिसे न मिली धूप

न हवा, न पानी

और न कोई खाद 

फिर भी तू पनपी 

पनपी ही नही  

बन गयी एक पेड़

बरगद सी छाया

 

फिर तूने बसाया

अपना संसार 

और कहलाई माँ

फिर बांटी तेजस धूप

पवन में भरी गंध

दूध से सींचे पौधे

हृदय को मथकर

लाई खाद

हुए तेरे

लख-लख पूत आबाद

 

एक बार फिर

व्यर्थ हुयी माँ

वह तेरी तपस्या

वह तेरा त्याग

क्योंकि

पुरुष होने के अहम् में    

‘बीज’ की कद्र करना

फिर भी हमें न आया I

(मौलिक  व् अप्रकाशित)_  

Views: 555

Comment

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Comment by vijay nikore on July 8, 2015 at 6:25pm

 //

एक बार फिर

व्यर्थ हुयी माँ

वह तेरी तपस्या

वह तेरा त्याग

क्योंकि

पुरुष होने के अहम् में    

‘बीज’ की कद्र करना

फिर भी हमें न आया I//

अति सुन्दर भाव ! अति सुन्दर रचना, आदरणीय गोपाल नारायन जी।

Comment by kanta roy on July 8, 2015 at 4:16pm
बेहद सारगर्भित कविता हुई है यह ......

तू ऐसा बीज थी
जिसे न मिली धूप
न हवा , न पानी
और न कोई खाद 
फिर भी तू पनपी 
पनपी ही नही  
बन गयी एक पेड़
बरगद सी छाया....... वो सदा छाया ही बनती है बिलकुल सच कहा आपने । बधाई आपको आदरणीय डा. गोपाल नारायण श्रीवास्तव जी इस सुंदरतम रचना के लिए ।
Comment by विनय कुमार on July 8, 2015 at 3:20pm

// एक बार फिर
व्यर्थ हुयी माँ
वह तेरी तपस्या
वह तेरा त्याग
क्योंकि
पुरुष होने के अहम् में
‘बीज’ की कद्र करना
फिर भी हमें न आया // , इन पंक्तियों ने बहुत कुछ कह दिया | बहुत सुन्दर कविता आदरणीय डॉ गोपाल नारायण श्रीवास्तव जी , बधाई


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Comment by मिथिलेश वामनकर on July 8, 2015 at 2:06pm

आदरणीय गोपाल सर 

बढ़िया कविता हुई है 

हार्दिक बधाई 

Comment by savitamishra on July 8, 2015 at 1:50pm

बहुत बढ़िया आदरणीय ...सादर नमस्ते

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