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कला गीतिका-दौर गम का ये पिघलने दो जरा

बहरे रमल मुसद्दस महजूफ
फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलुन
2122 2122 212
--------------------------
हसरतें बेताब जलने दो ज़रा।
दौर गम का ये पिघलने दो जरा।
*****
मन जला है तन जला है इश्क में,
प्यार की अब साँझ ढलने दो ज़रा।
*****
प्यास होठों को सुखाये जा रहा,
भर नजर से जाम चलने दो ज़रा।
*****
होश में हम रोज रोते ही रहें,
अश्क पीकर आज हँसने दो ज़रा।
*****
आ उजाड़ो शौक से ऐ आँधियों,
बस्तियां दो चार बसने दो ज़रा।
******
आप बैठो और लेटो बात क्या,
बस मुझे भी पाँव रखने दो ज़रा।
*****
तोड़ जाते हो चमन के फूल क्यों,
छोड़ दो गुलशन महकने दो ज़रा।

मौलिक एवं अप्रकाशित रचना।
राय सादर स्वीकार्य है।

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Comment

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 4, 2015 at 9:04pm

आदरणीय सुनील प्रसादजी, आपकी इस प्रस्तुति पर सार्थक चर्चा हो चुकी है. आप चाहें तो तदनुरूप एडिट कर लें.

सादर

Comment by सुनील प्रसाद(शाहाबादी) on June 25, 2015 at 11:10am
तहेदिल शुक्रिया जनाब मिथिलेश वामनकर जी हौसलाअफजाई के लिये।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on June 25, 2015 at 2:49am

आदरणीय सुनील जी बढ़िया ग़ज़ल हुई है 

हार्दिक बधाई 

Comment by सुनील प्रसाद(शाहाबादी) on June 14, 2015 at 9:35pm
सस्नेह आभार भाई कृष्णा मिश्रा जान गोरखपुरी जी आपको ग़ज़ल पसंद आई।
Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on June 14, 2015 at 9:04pm

बहुत ख़ूब आ० सुनील जी.सुन्दर गजल हुयी है.हार्दिक बधाई सादर!

Comment by सुनील प्रसाद(शाहाबादी) on June 13, 2015 at 6:00pm
आदरणीय गिरिराज भंडारी जी आप सही फरमा रहें है हमने ये महसूस किया और उक्त गलती को यूँ सुधार लिया अब मिसरे को बदल कर-
"इश्क के अरमान बहने दी ज़रा ।
दौर है गम का पिघलने दो ज़रा।
और दुसरे असआर में इश्क की जगह साथिया कर दिया है आपका बहुत शुक्रिया की आपने इस्लाह किया।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on June 13, 2015 at 4:02pm

आदरणीय सुनील शाहबादी भाई , लाजवाब अशआर हुये हैं सभी , दिली मुबारक बाद कुबूल कीजिये ।

एक गम्भीर गलती मतले मे हो गई है , काफिया निर्धारण , --

हसरतें बेताब जलने दो ज़रा।
दौर गम का ये पिघलने दो जरा।     --- काफिया - अल ने , और रदीफ  दो ज़रा  तय हुआ है ।   आगे के बहुत से शे र काफिया के कारण खारिज़ हो रहे हैं  --- हँसने दो , बसने दो , रखने दो  , और महकने दो -- इनमें काफिया अ ने दो आ रहा है । मतले में बदलाव ज़रूरी है । गौर कीजियेगा । सादर ।

Comment by सुनील प्रसाद(शाहाबादी) on June 13, 2015 at 1:29pm
सलाम और शुक्रिया जनाब विनय कुमार जी।
Comment by विनय कुमार on June 13, 2015 at 11:59am

//मन जला है तन जला है इश्क में,
प्यार की अब साँझ ढलने दो ज़रा // । बहुत बहुत बधाई क़ुबूल करें आदरणीय सुनील जी इस खूबसूरत रचना के लिए..

Comment by सुनील प्रसाद(शाहाबादी) on June 13, 2015 at 11:17am
हार्दिक आभार आदरणीय श्री सुनील जी को सुनील के तरफ से।

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