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मेरे दिल के हर इक कोने से पोशीदा अलम निकले- शिज्जु शकूर

1222/1222/1222/1222

मेरे दिल के हर इक कोने से पोशीदा अलम निकले

सो जो अल्फ़ाज़ निकले दिल से बाहर वो भी नम निकले

 

गुजश्ता* वक्त का कोई निशाँ बाकी नहीं लेकिन                                     *गुज़रा हुआ

उसी की जुस्तजू में दिल से खूँ ही दम ब दम निकले

 

किया जिस वास्ते किस्मत से शिकवा मैंने ऐ ग़मख़्वार

हकीकत में वो सारे ज़ख्म तो तेरे सितम निकले

 

किसी खूँख्वार* को मतलब नहीं ईमानो दीं से कुछ                               *रक्त पिपासु

तू आँखें खोल के देखे तो फिर तेरा वहम निकले

 

मैं ख़ूगर* इस कदर तन्हाइयों का हो गया यारो                                   *आदी

बड़ी मुश्किल से बाहर आज मेरे ये कदम निकले

 

वफा तुमने निभाई जो रवायत तोड़कर ऐ दोस्त

तुम्हारे वास्ते हर कायदे को भूल हम निकले

 

-मौलिक व अप्रकाशित

 

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Comment by शिज्जु "शकूर" on May 4, 2015 at 4:05pm

आदरणीय जितेन्द्र जी आपका बहुत बहुत शुक्रिया


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Comment by शिज्जु "शकूर" on May 4, 2015 at 4:04pm

आदरणीय निलेश भैया आपका बहुत बहुत शुक्रिया महत्वपूर्ण जानकारी साझा करने के लिये। ग़ज़ल को लेकर आपकी सोच एवं समझ वाकई काबिले तारीफ है आपने चर्चा में सक्रियता दिखाई आपका बहुत बहुत शुक्रिया


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Comment by शिज्जु "शकूर" on May 4, 2015 at 4:02pm

आदरणीय समर साहब चर्चा में शिरकत करने के लिये आपका बहुत बहुत  शुक्रिया 


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Comment by शिज्जु "शकूर" on May 4, 2015 at 3:59pm

आदरणीय सौरभ सर आपका बहुत बहुत शुक्रिया जो आपने मेरी रचना को समय दिया एवं सराहा


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on May 4, 2015 at 3:58pm

आदरणीय श्री सुनील जी आपका बहुत बहुत शुक्रिया रचना को समय देने के लिये

Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 4, 2015 at 11:31am

वैसे शिज्जू भाई 

वफा तुमने निभाई जो रवायत तोड़कर ऐ दोस्त

सो तेरे वास्ते हर कायदे को भूल हम निकले... इस शेर में शातुर्गुरबा जैसा कुछ झलक रहा है (तुम-तेरे)
सादर 

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on May 4, 2015 at 11:28am

बहुत खूबसूरत अशआर कहे, आदरणीय शिज्जू जी.

वफा तुमने निभाई जो रवायत तोड़कर ऐ दोस्त

सो तेरे वास्ते हर कायदे को भूल हम निकले.....यह शेर बहुत पसंद आया, तहे दिल से बधाई स्वीकारें

 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 4, 2015 at 11:20am

मेरा सिर्फ इतना निवेदन है कि सिर्फ डिक्शनरी में दिए अर्थ पर शायरी को न बांधिये. डिक्शनरी का अपना महत्व है जिसे कतई कम कर के नही देखा जा सकता लेकिन किसी के शेर के भाव को इसलिए नकार देना कि उसमे दिए शब्द का अर्थ डिक्शनरी अर्थ से नहीं मिलता ये ज़्यादती है.
आज उर्दू अदब में rekhta.org से बड़ी कोई website नहीं है जहाँ एक से एक आलिम आते हैं और उनके ख़ज़ाने को समृद्ध करते हैं..नीचे उसी साईट का स्क्रीन शॉट संलग्न है.
शायरी कहे गए शब्दों को अपने माहौल से जोड़ने का भी नाम है ..हर बार यदी हरम को काबे से जोड़ा जाने लगे तो दैर-ओ-हरम ये टर्म ही अप्रासंगिक लगती है क्यूँ की दैर कोई स्पेसिफिक मंदिर नहीं है जबकी हरम स्पेसिफिक जगह है.  फिर तो बद्री-ओ-हरम या केदार-ओ- हरम  या कामख्या-ओ-हरम  कहना सही होगा. यानी तुलना या साथ तो नॉन स्पेसिफिक का है जो आपके आसपास हैं दैर-ओ-हरम
.
अयाज़ झाँसवी साहब का एक शेर देखें

न शिवाले न कलीसा न हरम झूठे हैं
बस यही सच है कि तुम झूठे हो हम झूठे हैं ...
यहाँ भी कई कलीसा, कई शिवाले और हरम सिर्फ एक ..बहुत नाइंसाफ़ी हुई ये तो  

Comment by Samar kabeer on May 4, 2015 at 11:03am
जनाब निलेश "नूर" जी,आदाब,डिक्शनरी जनाब गिरिराज जी लेकर आए हैं,आप ने जो अशआर पेश किये हैं उसे शाईरी की भाषा में "तशबीह" कहते हैं,"चहरे को फूल से","आँखो को झील से","काली घटा को ज़ुल्फ़ से",
ये एक अलग चीज़ है,इससे डिक्शनरी का महत्व ख़त्म नहीं हो जाता,डिक्शनरी अपनी जगह है,अब आप मुझे बताईये कि डिक्शनरी किस लिये होती है,यहाँ चर्चा इस बात पर है कि क्या हरम को मस्जिद कह सकते हैं ? हरम को मस्जिद से तशबीह नहीं दी जा सकती,तशबीह की तरह शाईरी में कई सनअतें होती हैं जैसे "इस्तेआरा","तज़ाद","महाकात",वग़ैरा वग़ैरा,इन सब का डिक्शनरी से कोई तआल्लुक़ नहीं होता,ये सब समझने की चीज़ें होती हैं,इस चर्चा को चाहें तो और बढ़ा सकते हैं लेकिन इसे चर्चा नहीं बाल की खाल निकालना कहेंगे |
Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 4, 2015 at 10:58am

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