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मेरे दिल के हर इक कोने से पोशीदा अलम निकले- शिज्जु शकूर

1222/1222/1222/1222

मेरे दिल के हर इक कोने से पोशीदा अलम निकले

सो जो अल्फ़ाज़ निकले दिल से बाहर वो भी नम निकले

 

गुजश्ता* वक्त का कोई निशाँ बाकी नहीं लेकिन                                     *गुज़रा हुआ

उसी की जुस्तजू में दिल से खूँ ही दम ब दम निकले

 

किया जिस वास्ते किस्मत से शिकवा मैंने ऐ ग़मख़्वार

हकीकत में वो सारे ज़ख्म तो तेरे सितम निकले

 

किसी खूँख्वार* को मतलब नहीं ईमानो दीं से कुछ                               *रक्त पिपासु

तू आँखें खोल के देखे तो फिर तेरा वहम निकले

 

मैं ख़ूगर* इस कदर तन्हाइयों का हो गया यारो                                   *आदी

बड़ी मुश्किल से बाहर आज मेरे ये कदम निकले

 

वफा तुमने निभाई जो रवायत तोड़कर ऐ दोस्त

तुम्हारे वास्ते हर कायदे को भूल हम निकले

 

-मौलिक व अप्रकाशित

 

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on May 10, 2015 at 11:29am

भाई कृष्ण मिश्रा जी आपका बहुत बहुत शुक्रिया

Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on May 5, 2015 at 9:01pm

किसी खूँख्वार* को मतलब नहीं ईमानो दीं से कुछ                  

तू आँखें खोल के देखे तो फिर तेरा वहम निकले          वाह! वाह! वाह!

इस बेहतरीन गजल पर ढेरों दाद व् मुबारकबाद आ० शिज्जू सर!


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on May 5, 2015 at 1:45pm

ज़रूर निकलना था .. शुतुर के साथ ग़ुर्बा का होना वैसे भी नहीं सुहाता ..  मने, ऊँटवा के साथ बिलरिया कैसे सुहायेगी !!...

हा हा हा..

ग़ज़ल पर हुई (हुआ?) चर्चा ज्ञानवर्द्धक रही.शुभकामनाएँ, शिज्जू भाई.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on May 5, 2015 at 12:18am
:-))

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on May 5, 2015 at 12:18am
लीजिये सौरभ सर गुरबा भी निकल गया

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on May 4, 2015 at 4:32pm

जय हो..  :-)))

Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 4, 2015 at 4:31pm

सहमत हूँ आ. सौरभ सर के सुझाव से.
तूने के साथ हम कर के भी कहीं न कहीं उपेक्षात्मक भाव आता है ..व्यापकता जाती है ..तू तो तू और मैं तो हम ...
हम शहंशाह-ए-अकबर है ..तुम क्या चीज़ हो 
हम शहंशाह-ए-अकबर है ..तू क्या चीज़ है ...में क्या अधिक अदबी लगता है? सिर्फ joke है शिज्जू भाई :))))) 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on May 4, 2015 at 4:28pm

आदरणीय सौरभ सर ब्लॉग्स में ये सुविधा है कि चाहे जितनी बार गलती सुधारी जा सकती है :-) पिछली दफा मैंने संशोधन मोबाईल से किया था अभी लैपटॉप पर हूँ तो दोबारा सुधार लेता हूँ 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on May 4, 2015 at 4:19pm

शिज्जू भाई, आदरणीय नीलेशभाई ने बहुत महीनी से पकड़ा है.. ये तो मानना पड़ेगा..

किसी ने इस शुतुरग़ुर्बा की ओर अबतक नज़र नहीं की थी.. वर्ना इस मंच पर कम ’ख़ुर्दबीन’ नहीं हैं.. :-))

 

आपने तुमने को तूने कर दिया.. मगर अच्छा होता सानी के सो तेरे को तुम्हारे कर लेते.. शेर व्यापक हो जाता. ऐसा मुझे लग रहा है.  यों, इस शेर के शुतरग़ुर्बा से शुतुर निकल गया है. 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on May 4, 2015 at 4:07pm

निलेश भैया शुतुरगुरबा सुधार लिया है आपका एक बार फिर से शुक्रिया

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