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गजल-  आत्मा भरपूर सी...
बह्र - 2122, 2122, 2122, 212

फिर मुझे वह हूर सी लगने लगी।
दुश्मनी भी नूर सी लगने लगी।

गंग जन - मन को सदा पावन करे,
वास्तव में सूर सी लगने लगी।

तट, नदी का मध्य भी उकता गया,
रेत - पन्नी घूर सी लगने लगी।

आस्था की डुबकियॉं नित स्वर्ग हित,
बेवजह मगरूर सी लगने लगी।

आदमी सर-झील-नदियॉं पाट कर,
हस्तियॉं मशहूर सी लगने लगी।

आपदाएं नित्य घर-मन दाहतीं,
मंजिलें तन्दूर सी लगने लगी।

त्याग करके हर अहम - आकार को,
आत्मा भरपूर सी लगने लगी।

दर्द में 'सत्यम' किनारे बॅंट गए,
मौज जब मगरूर सी लगने लगी।

के0पी0 सत्यम/ मौलिक व अप्रकाशित

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Comment

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Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on April 16, 2015 at 9:10am

आदरणीय जान भाई, कबीर भाई, गोपाल सरजी, हरिप्रकाश भाईजी तथा वीनस भाईजी आप सभी का तहेदिल से शुक्रिया,आभार प्रकट  करता हू.  यह सब आप  लोगो के सानिध्य मे ही सम्भव हुआ है.  सांदर

Comment by वीनस केसरी on April 16, 2015 at 12:58am

बहुत खूब

निरंतर लेखन से आपने ग़ज़ल विधा को भी साध लिया है

Comment by Hari Prakash Dubey on April 15, 2015 at 10:55pm

आदमी सर-झील-नदियॉं पाट कर,
हस्तियॉं मशहूर सी लगने लगी।

आपदाएं नित्य घर-मन दाहतीं,
मंजिलें तन्दूर सी लगने लगी।............सुन्दर रचना  केवल जी , बधाई !

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on April 15, 2015 at 5:16pm

केवल जी बहर तो २१२२ २१२२ २१२ ही है i

आपका प्रयास अच्छा है  i

Comment by Samar kabeer on April 15, 2015 at 10:44am
जनाब केवल प्रसाद जी,आदाब,सुन्दर प्रस्तुति हेतु बधाई स्वीकार करें |
Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on April 14, 2015 at 10:49pm

आ० सत्यम जी सुन्दर रचना पर बधाई!

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on April 14, 2015 at 8:37pm

आ0 गनेश सर जी,  आपका हार्दिक आभार.  गलत तकती को सही कर देता हू. सादर

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on April 14, 2015 at 8:25pm
आ0 निधीजी, आपका हार्दिक आभार. आपने बिलकुल सही कहा. लेकिन हिन्दी और उर्दू के मेल से ही हिंदी मे मिठास भरती है. मेरा मानना है कि हिंदी भाषा की उदारता के कारण ही आज हिंदी भाषा भाषियो की संख्या बढ़ी है. सादर,

मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on April 14, 2015 at 4:34pm

बहर में एक रुक्न आपने अधिक लिख दिया है जैसा की निधि जी ने बतायी हैं, 

त्याग कर हर अहं आकार को.....इस मिसरा की जरा तकती देख लीजिये.

मुझे ग़ज़ल अच्छी लगी, बधाई केवल भाई.

Comment by Nidhi Agrawal on April 14, 2015 at 2:27pm

आदरणीय सत्यम जी रचना के भाव अच्छे लगे .. मापनी २१२२ २१२२ २१२ पर सही  है (एक २१२२ ज्यादा लिख दिया है आपने )

.. लेकिन हिंदी और उर्दू का मेल मुझे कुछ कम जंचा 

एक तरफ गंग, पावन, आस्था, आपदा, तट संस्कार जैसे संस्कृत से आये हिंदी  शब्द .. दूसरी तरफ नूर, हूर, मगरूर हस्ती जैसे शुद्ध उर्दू शब्द .. कभी कभी ऐसा मेल भी अच्छा लगता है .. लेकिन इस रचना मे ये मेल रचना को थोडा हल्का कर रहा है .. ये मेरा व्यक्तिगत विचार है .. जैसा पढने पर महसूस हुआ 

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