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ग़ज़ल : नीली लौ सी तेरी आँखों में शायद पकता है मन

बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २२ २२ २

 

यूँ तो जो जी में आए वो करता है, राजा है मन

पर उनके आगे झटपट बन जाता भिखमंगा है मन

 

उनसे मिलने के पहले यूँ लगता था घोंघा है मन

अब तो ऐसा लगता है जैसे अरबी घोड़ा है मन

 

उनके बिन खाली रहता है, कानों में बजता है मन

जिसमें भरकर उनको पीता हूँ वो पैमाना है मन

 

पहले अक़्सर मुझको लगता था शायद काला है मन

पर उनसे लिपटा जबसे तबसे गोरा गोरा है मन

 

मुझको इनसे अक्सर भीनी भीनी ख़ुशबू आती है

नीली लौ सी तेरी आँखों में शायद पकता है मन

---------

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment by Dr. Vijai Shanker on April 1, 2015 at 4:50pm
मुझको इनसे अक्सर भीनी भीनी ख़ुशबू आती है
नीली लौ सी तेरी आँखों में शायद पकता है मन
सुन्दर ,सराहनीय ,बधाई ,आदरणीय धर्मेन्द्र कुमार जी , सादर।
Comment by Shyam Narain Verma on April 1, 2015 at 4:44pm
इस सुंदर प्रस्तुति के लिए तहे दिल बधाई सादर
Comment by Nazeel on April 1, 2015 at 1:59pm

////मुझको इनसे अक्सर भीनी भीनी ख़ुशबू आती है

   नीली लौ सी तेरी आँखों में शायद पकता है मन//////क्या बात है भाई जी.....  अच्छी रचना  लिए दिली मुबारकबाद

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