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२१२२/ २१२२/ २१२२/२१२२ 

हादसा टूटा जो मुझ पे हादसा वो कम नहीं है
ग़म ज़माने का मुझे है इक तेरा ही ग़म नहीं है.  
.
या ख़ुदा! तेरे जहाँ का राज़ मैं भी जानता हूँ,
हैं ख़ुदा हर मोड़ पर लेकिन कहीं आदम नहीं है.
.
तेरे वादे की क़सम मर जाएँ हम वादे पे तेरे,
क्या करें वादे पे तेरे तू ही ख़ुद क़ायम नहीं है. 
.
ज़ख्म वो तलवार का हो वार हो चाहे जुबां का
वक़्त से बढकर जहाँ में कोई भी मरहम नहीं है.
.
देखते ही कह पड़ा
यक-लख़्त मुझको इक नजूमी  
हिज्र की ऋत तो लिखी है वस्ल का मौसम नहीं है.
.
ख़ुश्क सहरा सा हुआ है सूख कर कोई समुन्दर
झीलें आँखों की हैं सूखी दिल ज़रा भी नम नहीं है.    
.
रिश्ते नाते ग़म ख़ुशी सब आदमी की फितरतें हैं
धडकनों के पार दुनिया में ख़ुशी- मातम नहीं है.
.
मौलिक व अप्रकाशित 
निलेश "नूर"

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Comment

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Comment by Dr Ashutosh Mishra on March 25, 2015 at 5:23pm

आदरणीय नूर जी आपकी रचनाओं का इंतज़ार रहता है बहुत कुछ सीखने को मिलता है २१२२/ २२१२/ २२१२/२१२२ 

हादसा टूटा जो मुझ पे हादसा वो कम नहीं है  इसमें आपने २१२२ २२१२ २२१२ २१२२ लिखा है मैं दुबिधा में हूँ कहीं २२१२  २१२२ की जगह लिख दिया गया है ..ऐसे ही इक की जगह एक शायद ठीक होगा

मुझे ऐसा लगा इसलिए लिख दिया अन्यथा मत लीजियेगा  आपकी उत्क्रिस्ट रचना के लिए हार्दिक बधाई सादर 

Comment by Nirmal Nadeem on March 25, 2015 at 4:59pm

bemisaal waaah waaah zindabaad zindabaad

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on March 25, 2015 at 12:25pm

आ० नूर जी

अरसे बाद  आपको  पढ़ रहा हूं , कहाँ थे मित्र. गजल के तो सरताज आप है ही .सादर .

Comment by Mohan Sethi 'इंतज़ार' on March 25, 2015 at 11:24am

तेरे वादे की क़सम मर जाएँ हम वादे पे तेरे,
क्या करें वादे पे तेरे तू ही ख़ुद क़ायम नहीं है.  

बढ़िया ग़ज़ल ...बधाई 

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