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था सरीफों के लिए वो - लक्ष्मण धामी ’मुसाफिर’

2122    2122   2122   212
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दुर्दिनों ने आँख का  जब यार  जाला  हर लिया
तब दिखा है मयकशी ने इक शिवाला हर लिया
****
बाँटती थी  कल  तलक तो  वो बहुत ही जोर दे
राह ने किस बात से  अब पाँव छाला हर लिया

****

था  सरीफों  के  लिए  वो  राह  से  भटकें नहीं
कोतवालो चोर  से  पहले  ही  ताला हर लिया

****
टोकता है  कौन  दिन  को  दे  उजाला  कुछ उसे
रात के हिस्से का जिसने सब उजाला हर लिया
****
था पुराना  ही  सही पर मान रखता था तनिक
आप की  इस  खींचतानी ने दुशाला  हर लिया
****
माँ खिला लेती थी  जूठन बाप  गुजरे बाद भी
साहुकारों की  हवस ने  पर निवाला हर लिया
****
मौलिक और अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी ’मुसाफिर’

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Comment

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Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on March 8, 2015 at 12:36pm

आ0 भाई हरिप्रकाश जी उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक आभार .

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on March 8, 2015 at 12:35pm

आ0 भाई मिथिलेश जी , आपको ग़ज़ल अच्छी लगी लेखन सार्थक हुआ . अनुमोदन के लिए हार्दिक धन्यवाद .

Comment by Hari Prakash Dubey on March 8, 2015 at 11:40am

आदरणीय लक्ष्मण धामी जी बहुत प्रभावशाली रचना है, साधुवाद ! सादर 

था पुराना  ही  सही पर मान रखता था तनिक
आप की  इस  खींचतानी ने दुशाला  हर लिया...सुन्दर 

 


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Comment by मिथिलेश वामनकर on March 8, 2015 at 10:12am

आदरणीय लक्ष्मण धामी जी बेहतरीन और उम्दा ग़ज़ल के लिए दिल से दाद हाज़िर है -

दुर्दिनों ने आँख का  जब यार  जाला  हर लिया
तब दिखा है मयकशी ने इक शिवाला हर लिया... वाह 

था पुराना  ही  सही पर मान रखता था तनिक
आप की  इस  खींचतानी ने दुशाला  हर लिया... उम्दा 

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