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एक स्त्री हो तुम
पत्नि नाम है तुम्हारा 
लेकिन कभी कभी 
खुद से अधिक
मेरी चिन्ता में डूब जाती हो
तुम्हारा इतना चिन्तित होना
मेरे अन्तर्मन में भ्रम पैदा करता है
कि तुम मेरी अर्धांगिनी होकर
माँ जैसा व्यवहार करती हो
कैसा बिचित्र संयोजन हो तुम
ईश्वर का 

जीवन के उस समय में 

जब कोई नहीं था सहारे के लिये 
दूर दूर तक
तब एक भाई की तरह 
मेरे साथ खडे होकर 
भाई बन गयी थीं तुम
उस दिन मुझे आश्चर्य हुआ था 
कि स्त्री होकर भी तुमने
एक पुरुष की तरह साथ निभाया था मेरा

अलग अलग रूपों में पाया है
तुमको हरबार मैंने 
पता नहीं कौन हो तुम 
मैं पुरुष होकर सिर्फ और सिर्फ पुरुष ही रहा
पर तुमने कई बार बदला है अपने रूप को 
हे स्त्री ! तुम्हें पाकर पुरुष धन्य हो गया 

उमेश कटारा
मौलिक व अप्रकाशित




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Comment by umesh katara on February 26, 2015 at 6:54pm

maharshi tripathi जी शुक्रिया

Comment by umesh katara on February 26, 2015 at 6:54pm
Comment by umesh katara on February 26, 2015 at 6:54pm

krishna mishra 'jaan'gorakhpuri जी आभार 

Comment by maharshi tripathi on February 26, 2015 at 5:06pm

स्त्रिओं की असली पहचान बताती आपकी सुन्दर  व अनमोल रचना पर आपको हार्दिक बधाई आ.कटारा जी | 

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on February 26, 2015 at 3:25pm

वाह कटारा जी

पत्नी के लिय शास्त्रों में कहा गया है कि भोजन कराते समय वह मातृ रूप होती है i मंत्रणा के समय भाई-बहन  जैसी और सेज पर वैश्या  जैसी होती है i आपके विचार प्रशंसनीय हैं i साद्फर i

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on February 26, 2015 at 3:22pm

वाह कटारा जी

Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on February 26, 2015 at 11:29am
सचमुच एक स्त्री अपने जीवन में इतने सारे किरदार निभाती है,उसका कोई पार नहीं..इसलिये पुरुष हमेशा से ही स्त्री जाति का ऋणी रहा है और सदैव रहेगा...उम्दा रचना..आदरणीय उमेश जी बधाई स्वीकारें!

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