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121--22--121--22--121--22--121—22

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हमें  इज़ाज़त  मिले  ज़रा  हम  नई  सदी  को  निकल  रहे है

जवाँ परिंदे  उड़ानों की अब,   हर  इक  इबारत  बदल  रहे हैं।*

 

गुलाबी  सपने  उफ़क  में  कितने  मुहब्बतों  से  बिखर गए है

नया  सवेरा  अज़ीम करने,  किसी  के  अरमां  मचल  रहे  है।

 

मिले  थे  ऐसे  वो  ज़िन्दगी  से,  मिले  कोई जैसे अजनबी से

हयात से जो  मिली  है  ठोकर  जरा - जरा  हम  संभल रहे है।

 

अजीब महफ़िल, अजीब आलम, अजीब हस्ती, अजीब मस्ती

किसी  के  अहसास  पल रहे है  किसी के  ज़ज्बात जल रहे है।

 

बुजुर्गों अपनी ‘नसल’ पे तुम  भी  यकीन  इतना जुरूर रखना

बड़े अदब से  औ  एहतियातन  जमाना  हम  तो  बदल रहे है।

 

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(मौलिक व अप्रकाशित)  © मिथिलेश वामनकर 
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* आदरणीय गिरिराज सर द्वारा सुझाये संशोधन पश्चात् मिसरा.

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Comment by मिथिलेश वामनकर on February 17, 2015 at 10:22pm

आदरणीय गिरिराज सर, अगर मिसरा-ए-सानी ऐसा पढ़ा जावे तो कैसा रहेगा...

हमें  इज़ाज़त  मिले  ज़रा  हम  नई  सदी  को  निकल  रहे है

उड़ानों  की  दर - असल  इबारत जवां  परिंदे    बदल  रहे  है।


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on February 17, 2015 at 10:17pm

आदरणीय गिरिराज सर, रचना पर आपका स्नेह सदा से मिलता रहा है, जो सदैव मुझे लिखने के लिए प्रेरित करता रहा है. ग़ज़ल पर आपकी सराहना और सकारात्मक प्रतिक्रिया के लिए हृदय से आभारी हूँ. हार्दिक धन्यवाद. नमन 

आपने सही कहा शिकश्ते नारवां का दोष तो नही आ रहा है ... इसे मैं सुधार नहीं पा रहा हूँ....


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on February 17, 2015 at 10:15pm

आदरणीय मिथिलेश भाई , बहुत बढिया गज़ल हुई है , आपकी मेहनत रंग लायी है , दिली  मुबारक़बाद कुबूल करें ॥

12122           12122             12122            12122

जवां  परिंदे   / उड़ानों  की  दर /- असल  इबारत  / बदल  रहे  है।   --- इस मिसरे में देखियेगा शिकश्ते नारवां का दोष तो नही आरहा है ?  मै निश्चित नहीं हूँ पर पढ़ने में रुकावट महसूस कर रहा हूँ , दर को असल से अलग पढ़ना पड़ रहा है ॥

बुजुर्गों अपनी ‘नसल’ पे तुम  भी  यकीन  इतना जुरूर रखना

बड़े अदब से  औ  एहतियातन  जमाना  हम  तो  बदल रहे है -- ये शे र बहुत पसंद आया भाई मिथिलेश , बधाई ॥


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on February 17, 2015 at 8:15pm

आदरणीय  डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव सर ग़ज़ल पर आपकी सकारात्मक प्रतिक्रिया और स्नेह के लिए नमन.

बुजुर्गों अपनी ‘नसल’ पे तुम  भी  यकीन  इतना जुरूर रखना

बड़े अदब से  औ  एहतियातन  जमाना  हम  तो  बदल रहे है।

ये मक्ता नहीं है ... आखिरी शे'र है, दरअसल नस्ल का वज्न 21 होता है और मैंने प्रचलित व्यावहारिक भाषा के नसल का प्रयोग  वज्न 12  किया है इसलिए उसे इनवर्टेड कॉमा में रखा है. वैसे इसे वाक्य विन्यास बदल के 21 के वज्न पर रख सकता था पर इसे इसी रूप में प्रयोग करना चाह रहा था. परिवर्तित कुछ यूं होता - बुजुर्गों नस्लों पे आज अपनी यकीन इतना जुरूर रखना 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on February 17, 2015 at 3:51pm

आदरणीय  जितेन्द्र पस्टारिया जी ग़ज़ल पर आप जैसे संजीदा रचनाकार की सकारात्मक और उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया पाकर आनंदित हूँ, आपके स्नेह और सराहना के लिए हृदय से आभारी हूँ. हार्दिक धन्यवाद 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on February 17, 2015 at 3:44pm

आदरणीय डॉ विजय शंकर सर, ग़ज़ल पर आपकी सराहना, स्नेह और सकारात्मक प्रतिक्रिया पाकर मन को संतोष हुआ कि रचना आपको पसंद आई. मतले के विषय पर आपकी पंक्तियों ने रचना का मान बढ़ा दिया. इस उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक आभार व्यक्त करता हूँ. नमन 

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on February 17, 2015 at 3:43pm

बुजुर्गों अपनी ‘नसल’ पे तुम  भी  यकीन  इतना जुरूर रखना

बड़े अदब से  औ  एहतियातन  जमाना  हम  तो  बदल रहे है।------kyaa maktaa hai

इस पुरसर गजल् के  लिए सलाम i

 


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Comment by मिथिलेश वामनकर on February 17, 2015 at 3:40pm

आदरणीय हरि प्रकाश दुबे भाई जी आपकी सराहना और सकारात्मक प्रतिक्रिया के लिए आभार, हार्दिक धन्यवाद 

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on February 17, 2015 at 1:33pm

हमें  इज़ाज़त  मिले  ज़रा  हम  नई  सदी  को  निकल  रहे है

जवां  परिंदे   उड़ानों  की  दर - असल  इबारत  बदल  रहे  है।.......वाह! बहुत सुंदर. बेमिसाल मतला

मिले  थे  ऐसे  वो  ज़िन्दगी  से,  मिले  कोई जैसे अजनबी से

हयात से जो  मिली  है  ठोकर  जरा - जरा  हम  संभल रहे है।....यह अशआर बहुत पसंद आया. दिली बधाई स्वीकारें आदरणीय मिथिलेश जी

 

Comment by Dr. Vijai Shanker on February 17, 2015 at 11:29am
हमें इज़ाज़त मिले ज़रा हम नई सदी को निकल रहे है
जवां परिंदे उड़ानों की दर - असल इबारत बदल रहे है।
मुबारक, प्रिय मिथिलेश जी,
परिंदे जब उड़ते हैं ,
आदतन , हौसले दूसरों के बढ़ाते हैं ,
नभ को छू लेने को ऊंचे मंसूबे रखते हैं,
दूर , बहुत दूर क्षितिज की ओर उड़ते हैं,
उमगें देते हैं, संदेशे देते है,हौसले बढ़ाते हैं ।
ये पक्तियां आपको भेंट , हौसले कामयाब भी होते है, सादर।

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