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॥ पछतावा ॥ ॥ अतुकांत ॥ ( गिरिराज भंडारी )

॥ पछतावा ॥ ॥ अतुकांत ॥

कहने से नहीं

समझाने से नहीं

कोई अगर गंदगी को चख के ही मानने की ज़िद करे

कौन रोक सकता है

बातें

कर्तव्यों को छोड़

केवल अधिकारों तक पहुँच जाये तब

 

ज़हर धीमा हो अगर

अमृत तो नहीं कह सकते न

 

संस्कारों की भूमि में

रिश्ते दिनों से मानयें जायें

ये दिन , वो दिन

अफसोस होता है

 

पता नहीं क्यों

रोज़ रोते हुये देखता हूँ मैं सपने में

राधा-कृष्ण-मीरा को , सत्यवान-सावित्री को  

कभी कभी लैला- मजनू , शीरी- फरहाद को भी

 

ऐसा न हो कि ये सारे दिन

रातों में बदल जायें

बदल भी रहे हैं कुछ के

तब आँख खुले

बहुत देर हो जाने के बाद

 

क्योंकि,

जब समय समझाता है, तब  

हाथ आता है केवल और केवल

पछतावा ॥

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Comment

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on February 15, 2015 at 9:59am

आदरणीय मिथिलेश भाई , रचना के अनुमोदन के लिये आपका दिल से शुक्रिया ॥


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on February 15, 2015 at 3:15am

आदरणीय गिरिराज सर इस बेहतरीन कविता हेतु हार्दिक बधाई 

जब समय समझाता है, तब  

हाथ आता है केवल और केवल

पछतावा ॥


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on February 14, 2015 at 8:25pm

आदरणीय बड़े भाई गोपाल जी , आपके अनुमोदन से रचना धन्य हुई । आपका हार्दिक आभार ॥

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on February 14, 2015 at 8:23pm

क्योंकि,

जब समय समझाता है, तब  

हाथ आता है केवल और केवल

पछतावा ॥-------------------------------मित्र / बहुत सुन्दर भाव i


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on February 14, 2015 at 8:10pm

आदरणीय नादिर खान भाई , रचना की सराहना के लिये आपका तहे दिल से शुक्रिया ॥

Comment by नादिर ख़ान on February 14, 2015 at 3:19pm

कर्तव्यों को छोड़

केवल अधिकारों तक पहुँच जाये तब

 

ज़हर धीमा हो अगर

अमृत तो नहीं कह सकते न

 

संस्कारों की भूमि में

रिश्ते दिनों से मानयें जायें

ये दिन , वो दिन

अफसोस होता है

वाह गिरिराज जी निशब्द हूँ आपकी इस प्रस्तुति पर क्या कहने बहुत बहुत बधाई....

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