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समझ कर भी ये कुछ समझा नहीं है
ख़ुदा से आदमी डरता नहीं है

हमें हक़ के लिये लड़ना पड़ेगा
ये मौक़ा हाथ मलने का नहीं है

शराफ़त की दुहाई देने वालों
मुक़ाबिल इतना शाइस्ता नहीं है

ये आवाज़ों का जंगल है यहाँ पर
कोई फ़न्कार की सुनता नहीं है

नज़र के सामने रहता है लेकिन
कभी हमने उसे देखा नहीं है

ये दुनिया है संभल कर पाँव रखना
तुम्हारे घर का बाग़ीचा नहीं है

मैं अपनी क़ब्र में लेटा हुवा हूँ
मुझे अब कोई अन्देशा नहीं है

"समर" आँखें बदलती जा रही हें
मिरा सपना अभी टूटा नहीं है

---समर कबीर
मौलिक/अप्रकाशित

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Comment by Samar kabeer on February 7, 2015 at 5:46pm
जनाब दिनेश कुमार जी,जनाब श्याम नारायण वर्मा जी,आदाब,ग़ज़ल पसंद करने के लिये बहुत बहुत शुक्रिया|
Comment by दिनेश कुमार on February 7, 2015 at 5:35pm
बहुत बहुत खूब ...क्या कहने आदरणीय समर कबीर साहब ...वाह वाह..!! सभी अशआर बेहतरीन।
समर" आँखें बदलती जा रही हें
मिरा सपना अभी टूटा नहीं है .... .... क्या बात है
Comment by Shyam Narain Verma on February 7, 2015 at 4:40pm
बहुत खूब ! इस सुंदर गजल हेतु बधाई स्वीकारें ।

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