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ग़ज़ल - अज़ब बनाया हुआ फरिश्तो (मिथिलेश वामनकर)

121 - 22 / 121 - 22 / 121 - 22 / 121 – 22

 

बड़े ही जोरो से इस ज़हन में अज़ब धमाका हुआ फरिश्तो

फिज़ा में हलचल, हवा में दिल का गुबार छाया हुआ फरिश्तो

 

किसे पड़ी है सुकून से जो मुआमला क्या हमें बताये

वहां पे ऐसा नहीं हुआ था असल में ऐसा हुआ फरिश्तो

 

न पेश करना किसी का दामन, न गेसुओं से शिकस्त काँधे

हरेक लम्हां हयात का ये बहुत गुजारा हुआ फरिश्तो

 

गिरां से जो था कि मुब्तला अब बड़े सुकूं से वो सो रहा है

रहम कज़ा का चलो मिला जो सदी का जागा हुआ फरिश्तो

 

जहां परेशां है नक्शगर से, अजाब-ए-मातम गम-ए-जां ख़ाका

ये देवताओं ने चित्र कितना अजब बनाया हुआ फरिश्तो

 

सियासती जो दयार उनका, हमें तो मितली सी आ गई थी

किसी का थूका हुआ कही पे, किसी का चाटा हुआ फरिश्तो

 

यकीन ताजिंदगी हमारा वो साथ मानो निभा ही लेगा

जरा सही पर हमें किसी पर गज़ब भरोसा हुआ फरिश्तो

 

 

------------------------------------------------------

(मौलिक व अप्रकाशित)  © मिथिलेश वामनकर

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(संशोधित ग़ज़ल: आदरणीय गिरिराज सर और आदरणीय वीनस भाई जी के मार्गदर्शन अनुसार)

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Comment by rajesh kumari on January 21, 2015 at 9:46am

एक कठिन बह्र पर सुन्दर ग़ज़ल लिखी है आपने दिली दाद कबूलें .

Comment by Krishnasingh Pela on January 21, 2015 at 9:19am
वाह मिथिलेश साहब क्या बात ! मक्ता भी क्या सटीक कहा है । जरा सही पर हमें किसी पर..., दो 'पर' भिन्न अर्थ ले कर ग़ज़ब ढा रहे हैं । पूरी ग़ज़ल समझने के लिए अभी थोडी मशक़्क़त और जरूरी है । कोशिस जारी है । हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए इस सुन्दर रचना के लिए ।

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Comment by मिथिलेश वामनकर on January 21, 2015 at 4:44am

आदरणीय विनय जी सराहना के लिए बहुत बहुत आभार ... रचना आपको पसंद आई, लिखना सार्थक हुआ.

Comment by विनय कुमार on January 21, 2015 at 2:13am

//सियासती जो दयार उनका, हमें तो मितली सी आ गई थी
किसी का थूका हुआ कही पे, किसी का चाटा हुआ फरिश्तो// , वाह वाह , क्या खूब , बधाई |


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Comment by मिथिलेश वामनकर on January 20, 2015 at 9:36pm

आदरणीय राहुल भाई सराहना के लिए बहुत बहुत आभार 


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Comment by मिथिलेश वामनकर on January 20, 2015 at 9:31pm
आदरणीय गुमनाम सर सराहना के लिए दिल से शुक्रिया
Comment by Rahul Dangi Panchal on January 20, 2015 at 9:31pm
यकीन ताजिंदगी हमारा वो साथ मानो निभा ही लेगा
जरा सही पर हमें किसी पर गज़ब भरोसा हुआ फरिश्तो

आदरणीय मिथिलेश जी बहुत सुन्दर गजल कही है!
Comment by gumnaam pithoragarhi on January 20, 2015 at 9:27pm
वाह सर इतनी मुश्किल बहर में क्या खूब ग़ज़ल कही है

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Comment by मिथिलेश वामनकर on January 20, 2015 at 8:57pm

आदरणीय सुशील सरना सर, आपके स्नेह और सराहना ने मन गदगद कर दिया.. दिल से आभार व्यक्त करता हूँ.

Comment by Sushil Sarna on January 20, 2015 at 7:43pm

बड़े ही जोरो से इस ज़हन में अज़ब धमाका हुआ फरिश्तो
फिज़ा में हलचल, हवा में दिल का गुबार छाया हुआ फरिश्तो

वाह आदरणीय वामनकर साहिब क्या खूब लिखा है -हर अशआर बहुत ही खूबसूरत बन पड़ा है - इस बेहद उम्दा ग़ज़ल की प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई।

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