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अतुकांत - आपसी ताप से जलती टहनियाँ ( गिरिराज भंडारी )

आपसी ताप से जलती टहनियाँ

************************

आँधियों की छोड़िये

हवा थोड़ी भी तेज़ बहे, स्वाभाविक गति से

टहनियाँ रगड़ खाने लगतीं हैं

एक ही वृक्ष की

आपस में ही

पत्तियाँ और फूल न चाहते हुये भी

कुसमय झड़ जाने के लिये मजबूर हो जाते हैं

 

टहननियों की अपनी समझ है ,

परिभाषायें हैं खुशियों की ,

गमों की

फूल और पत्तियाँ असहाय

जड़ें हैरान हैं , परेशान हैं 

वो जड़ें ,

जिन्होनें सब टहनियों के लिये एक जैसी खींची थी ,

भेजी थी ,

जीवनी शक्ति

धरती की गहराइयों तक जा कर  

बाहर के उजाले का मोह त्याग स्वीकार किये,

घुप अँधेरे

 

क्या यही देखने के लिये

कि जल जायें टहनिययाँ उसके ही तने से लगी हुई

आपसी रगड़ से उत्तपन्न ताप से

*****************************

मौलिक एवँ अप्रकाशित

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Comment

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Comment by JAWAHAR LAL SINGH on January 15, 2015 at 9:46am

मार्मिक अभिव्यक्ति ...एक सत्य, जो आज के परिवार को, समाज को जलाकर खाक कर रही है, आदरणीय गिरिराज जी ... 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on January 14, 2015 at 11:29pm

अद्भुत प्रतीकात्मकता से मन नम हो गया है, आदरणीय गिरिराज भाईजी..
अभिव्यंजना अपने चरम पर है और इतनी गहरी भावाभिव्यक्ति है कि एक-एक पंक्ति निहितार्थ को संप्रेषित कर रही है. समाज परिवार संगठन राष्ट्र अपने-अपने हिस्से से परिभाषित हो रहे हैं आदरणीय. यही रचनाकर्म की पराकाष्ठा होती है. इंगितों से संज्ञाओं का निरुपण.
सादरधन्यवाद इस अत्यंत प्रखर किन्तु मनोमय रचना के लिए.
सादर


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on January 14, 2015 at 10:11pm

आदरणीय गिरिराज सर बहुत ही बेहतरीन भावाभिव्यक्ति है ... अतुकांत के शिल्प के विषय में नहीं जानता लेकिन कविता का मर्म और उसमें छिपी किन्तु अभिव्यक्त होती पीड़ा को महसूस कर रहा हूँ. इस सशक्त रचना के लिए हार्दिक बधाई.

Comment by Hari Prakash Dubey on January 14, 2015 at 7:54pm

वाकई ,जडें माता पिता की तरह असहाय प्रतीत होतीं हैं , टहनियां आजकल के बच्चे ......

टहननियों की अपनी समझ है ,

परिभाषायें हैं खुशियों की ,

गमों की

फूल और पत्तियाँ असहाय........ये असहाय  बच्चे

जड़ें हैरान हैं , परेशान हैं

यही देखने के लिये

कि जल जायें टहनिययाँ उसके ही तने से लगी हुई

आपसी रगड़ से उत्तपन्न ताप से............बहुत खूब ...सुन्दर रचना आदरणीय गिरिराज सर  | सादर अभिनन्दन |

Comment by asha pandey ojha on January 14, 2015 at 4:38pm

दर्द पीड़ा आकुलाह्त ...समान अवसरों के बावजूद उपजी असमानता व उसका वीभत्स रूप अभिव्यक्त करती ....वर्तमान समय की कसक को अभिव्यक्त करती एक मार्मिक कविता  बहुत  बहुत बधाई आदरणीय गिरिराज भंडारी जी सा 

Comment by somesh kumar on January 14, 2015 at 3:08pm

वाह ,क्या खुबसुरत प्रतीकात्मकता है ,जड़ो से अभिभावक ,टहनियों से उनकी सन्तान और कली-पत्तियां तीसरी पीढ़ी का प्रतिनिधित्त्व करती लगती हैं ,सुंदर अति मनोहरी |

Comment by khursheed khairadi on January 14, 2015 at 2:44pm

जड़ें हैरान हैं , परेशान हैं 

वो जड़ें ,

जिन्होनें सब टहनियों के लिये एक जैसी खींची थी ,

भेजी थी ,

जीवनी शक्ति

धरती की गहराइयों तक जा कर  

बाहर के उजाले का मोह त्याग स्वीकार किये,

घुप अँधेरे

 

क्या यही देखने के लिये

कि जल जायें टहनिययाँ उसके ही तने से लगी हुई

आपसी रगड़ से उत्तपन्न ताप से

आदरणीय गिरिराज सर वर्तमान परिस्थियों का अच्छा रूपक है ,व्यंजना अपने चरम पर है |आप जैसे कलमकार हमारे प्रेरणास्त्रोत है |सादर अभिनन्दन |

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