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22-22-22 / 22-22-2 / 22-22-22

 

मस्जिद न शिवाला है,

दिल में रहता तू,

तेरा घर भी निराला है.

 

तू मन का दरपन है

बस एक उजाले से,

सूरज भी रौशन है.

 

देखों मन का आँगन,

बादल आँखों में,

फिर खूब झरा सावन.

 

लो छूटा अपना घर,

एक मुसाफिर हूँ,

लम्बा है आज सफ़र.

 

सूरज जब ढल जाए,

मन अँधियारा हो,

तब दीपक जल जाए.

 

परबत पर बादल है,

दरिया बहता है,

हरियाली आँचल है.

 

किस्मत का लेखा है,

पापी को हमने,

बस रोते देखा है.

 

यारां क्यूं  रोता है ?

फल वैसा मिलता,

जो जैसा  बोता है.

 

अब रोती तितली है,

फूलों से रिश्ता,

ये डोरी पतली है.

 

सावन का महिना है,

बादल, बरखा है,

पर यार कहीं ना है.

 

ये सूना सा घर है,

जब से यार गए,

रसता देखें दर है

 

मन सूना बिस्तर है,

सिलवट ना जिसमें,

दिल  कैसी चादर है.

 

ये लोग नहीं अपने,

लोग सियासी है,

ये तोड़ेंगे सपने.

 

-------------------------------------------------------

(मौलिक व अप्रकाशित)  - मिथिलेश वामनकर 

-------------------------------------------------------

 

माहिया

22-22-22  - फैलुन-फैलुन-फैलुन 

22-22-2    - फैलुन-फैलुन-फ़ा

22-22-22  - फैलुन-फैलुन-फैलुन

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on December 9, 2014 at 8:35pm
आदरणीय गोपाल नारायण जी आपको यह प्रयास पसंद आया, धन्यवाद आभार।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on December 9, 2014 at 8:35pm
आदरणीय योगराज प्रभाकर जी आपको यह प्रयास पसंद आया, धन्यवाद आभार।
Comment by Dr. Vijai Shanker on December 9, 2014 at 8:21pm
माहिया की सुन्दर प्रस्तुति , बधाई , आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी।
Comment by Shyam Narain Verma on December 9, 2014 at 4:04pm

बहुत  ही सुन्दर प्रस्तुति  //हार्दिक बधाई आपको 

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 9, 2014 at 2:17pm

वामनकर जी

बहुत बढ़िया i एक उम्दा प्रयास  i


प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on December 9, 2014 at 11:31am

पंजाबी लोक साहित्य की इस बेहद मक़बूल विधा में आपको कलम आज़माई  करते देखना बाद सीखकर लगा भाई मिथिलेश वामनकर जी। सभी महिये सुन्दर और सरस हुए हैं, जिस हेतु हार्दिक बधाई स्वीकारें।

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