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ग़ज़ल - चलो कर लें निकलने का बहाना अब ( गिरिराज भंडारी )

१२२२        १२२२       १२२२

अकेले पन को कर ले तू , ठिकाना  अब

क़सम ली है, तो उस चौखट न जाना अब

समय बदला तो वो बदले , नज़र बदली

चलो कर लें  निकलने का  बहाना अब

 

वही आंसू , वही आहें  , वही   ग़म है

कहीं  पे  ख़त्म हो जाये  फ़साना  अब

 

झिझक ये ही हरिक दिल में, यही डर है

कहेगा क्या जो  जानेगा  ज़माना  अब

 

सुनो तितली , सुने  पंछी  बहारें   भी

मेरे उजड़े  हुये घर में , न  आना अब

 

कबूतर  बच  के गुम्बद से  कहाँ जाएँ

कहाँ  ढूंढें,  कहाँ  कर लें  ठिकाना अब

     

वही ज्ज़्बा, वही  बातें , वही   दिल है

मगर चेह्रा  लगा मुझको  पुराना  अब

 

नक़ाब  उलटा अयाँ सच की  हुई शक़्लें

करोगे  क्या  बताओ तो  बहाना  अब

*******************

मौलिक अवँ अप्रकाशित ( संशोधित )

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Comment

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on December 4, 2014 at 8:52pm

शानदार मतला ...बहुत सुन्दर ग़ज़ल हुई है आ० गिरिराज जी ,

सुनो तितली , सुने  पंछी  बहारें   भी

मेरे उजड़े  हुये घर में , न  आना अब-----क्या कहने वाह 

हार्दिक बधाई इस सुन्दर ग़ज़ल पर 

 

Comment by Neeraj Nishchal on December 4, 2014 at 6:49pm
भाई गिरिराज जी बहुत ही उम्दा गजल हुयी है हर अशयार बेमिसाल है आपको ढेरोँ बधाई इस गज़ल के लिये ।

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