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वक़्ते-पैदाइश पे यूं

मेरा कोई मज़हब नहीं था
गर था मैं,

फ़क़त इंसान था, इक रौशनी था

बनाया मैं गया मज़हब का दीवाना
कि ज़ुल्मत से भरा इंसानियत से हो के बेगाना
मुझे फिर फिर जनाया क्यूँ
कि मुझको क्यूँ बनाया यूं

पहनकर इक जनेऊ मैं बिरहमन हो गया यारो
हुआ खतना, पढ़ा कलमा, मुसलमिन हो गया यारों
कहा सबने कि मज़हब लिक्ख
दिया किरपान बन गया सिक्ख

कि बस ऐसे धरम की खाल को
मज़हब के कच्चे माल को
यूं ठोककर और पीटकर
खूं से सजाने वाला था
फ़ित्ना सिखाने वाला था
इक कारखाना कारगर
यारो कि मेरा अपना घर.…… अपना घर

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(मौलिक व अप्रकाशित) - मिथिलेश वामनकर
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Comment

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Comment by Dr Ashutosh Mishra on December 3, 2014 at 2:03pm

आदरणीय मिथिलेश जी बहुत ही सुंदर प्रस्तुति है . मेरी तरफ से ढेर सारी बधाई स्वीकार करें ..मैं आपकी बातों से पूरी तरह इत्तेफाक रखता हूँ  

Comment by Shyam Narain Verma on December 3, 2014 at 12:20pm

बहुत  ही सुन्दर प्रस्तुति  //हार्दिक बधाई आपको 

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