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लम्हा महकता … एक रचना

सोया करते थे कभी जो रख के सर मेरे शानों पर
गिरा दिया क्यों आज पर्दा  घर के रोशनदानों पर
तपती राहों पर चले थे जो बन के हमसाया कभी
जाने कहाँ वो खो गए ढलती साँझ के दालानों पर
होती न थी रुखसत कभी जिस नज़र से ये नज़र
लगा के मेहंदी सज गए वो   गैरों के गुलदानों पर
कैसा मैख़ाना था यारो हम रिन्द जिसके बन गए
छोड़ आये हम निशाँ जिस मैखाने के पैमानों पर
देख कर दीवानगी हमारी  कायनात  भी  हैरान है
किसको तकते हैं भला हम  तन्हा आसमानों पर
देखना मुड़ मुड़ के हमको  उस गली के छोर तक
ज़िंदा है वो लम्हा महकता  दिल के  अरमानों पर

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by Sushil Sarna on November 21, 2014 at 12:55pm

आदरणीय  MUKESH SRIVASTAVA   जी आपकी मधुर प्रतिक्रिया का हार्दिक आभार। 

Comment by MUKESH SRIVASTAVA on November 21, 2014 at 10:17am

baut sundar mitra - dheron daad aur bahut bahut badhaaee

Comment by Sushil Sarna on November 20, 2014 at 6:28pm

आदरणीय  Hari Prakash Dubey   जी आपकी मधुर प्रतिक्रिया का हार्दिक आभार। 

Comment by Sushil Sarna on November 20, 2014 at 6:27pm

आदरणीय  Shyam Narain Verma   जी आपकी मधुर प्रतिक्रिया का हार्दिक आभार। 

Comment by Hari Prakash Dubey on November 20, 2014 at 5:49pm

सुन्दर प्रस्तुति आदरणीय  सुशील सरना जी,आपको ह्रदय से बधाई ।

Comment by Shyam Narain Verma on November 20, 2014 at 1:15pm

बहुत खूब ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,, गजल पर आपको दिल से बधाई

Comment by Sushil Sarna on November 19, 2014 at 7:49pm

आदरणीया  योगराज प्रभाकर  जी आपकी ऊर्जावान स्नेहिल प्रशंसा का हार्दिक आभार। 

Comment by Sushil Sarna on November 19, 2014 at 7:48pm

आदरणीया  पूजा जी आपकी स्नेहिल प्रशंसा का हार्दिक आभार। 

Comment by Sushil Sarna on November 19, 2014 at 7:47pm

आदरणीय सोमेश  जी आपकी मधुर प्रतिक्रिया का हार्दिक आभार। 

Comment by Sushil Sarna on November 19, 2014 at 7:47pm

आदरणीय डॉ गोपाल नरायन श्रीवास्तव जी आपकी ऊर्जावान प्रतिक्रिया का हार्दिक आभार। 

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