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लघुकथा : गुब्बारा (गणेश जी बागी)

"वाह वाह !! क्या लिखते हैं साहब, एक बार किताब छपने तो दीजिये, देखिये कैसे लोग हाथो हाथ उठा लेते हैं I"

पाण्डुलिपि पलटते हुए प्रकाशक ने "कवि जी" से कहा । खैर, जीवन भर की कमाई और कुछ मित्रों से उधार लेकर किताब छप गयी। 
प्रकाशक ने पाँच सौ प्रतियां "कवि जी" के पास भिजवा दीं । 
झाड़ू लगाते समय पत्नी का भुनभुनाना अब रोज की बात हो गयी ।
.

(मौलिक व अप्रकाशित)

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on October 9, 2014 at 12:56pm

वाह्ह लेखकों /कवियों की दुखती रग पकड़ती आपकी ये लघु कथा काबिले तारीफ है अपना मर्म सम्प्रेषण में कामयाब है बहुत- बहुत बधाई| 


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on October 9, 2014 at 12:00pm

आदरणीय डॉ विजय शंकर साहब, लघुकथा पर आपकी सराहना प्रोत्साहित करती है, दिल से आभार व्यक्त करता हूँ, सादर ।


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on October 9, 2014 at 11:58am

आदरणीय प्रधान संपादक जी, लघुकथा सम्राट से इस लघुकथा पर प्राप्त आशीर्वाद किसी पुरस्कार से कम नही है, मन मुग्ध है, बारम्बार हृदय से आभार व्यक्त करता हूँ आदरणीय, स्वीकार करें ।

Comment by Dr. Vijai Shanker on October 9, 2014 at 11:45am
किताबें कहाँ बिकती हैं ,वह भी कविता की . यथार्थ को प्रकट करती लघु कथा के लिए बधाई , आदरणीय इंजीo गणेश जी बागी जी .

प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on October 9, 2014 at 11:34am

लघुकथा यथार्थ के बेहद करीब होने की वजह से बहुत पभावशाली हो गई है. शीर्षक भी एकदम सटीक है. हार्दिक बधाई स्वीकार करें भाई गणेश बागी जी.

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