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मैंने हयात सारी गुजारी गुलों के साथ

221   2121   1221    212  

 

जल जल के सारी रात यूं मैंने लिखी ग़ज़ल

दर दर की ख़ाक छान ली तब है मिली ग़ज़ल

 

 मैंने हयात सारी गुजारी गुलों के साथ

पाकर शबाब गुल का ही ऐसे खिली ग़ज़ल

 

मदमस्त शाम साकी सुराही भी जाम भी

हल्का सा जब सुरूर चढ़ा तब बनी ग़ज़ल

 

शबनम कभी बनी तो है शोला कभी बनी

खारों सी तेज चुभती कभी गुल कली ग़ज़ल

 

चंदा की चांदनी सी भी सूरज कि किरणों सी

हर रोज पैकरों में नए है ढली ग़ज़ल

 

चलती ही जा रही है जमाने से आज तक

मिर्जा तकी के साथ कभी थी चली ग़ज़ल 

मौलिक व अप्रकाशित 

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Comment

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Comment by Santlal Karun on September 20, 2014 at 11:10pm

आदरणीय डॉ. आशुतोष मिश्र जी,

"मैंने हयात सारी गुजारी गुलों के साथ

पाकर शबाब गुल का ही ऐसे खिली ग़ज़ल"

.. मार्मिक तथा खूबसूरत  ग़ज़ल के लिए हार्दिक साधुवाद एवं सद्भावनाएँ !

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on September 20, 2014 at 7:02pm

आशुतोष जी

बहुत बढ़िया मित्र i बधाई हो i

 

मैंने हयात सारी गुजारी गुलों के साथ

पाकर शबाब गुल का ही ऐसे खिली ग़ज़ल

Comment by Shyam Narain Verma on September 20, 2014 at 5:29pm

इस सुन्दर ग़ज़ल के लिए बहुत बहुत बधाई आपको

सादर.................

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