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ग़ज़ल..चांद बढ़ता रहा..

चाँद बढ़ता रहा...... चाँद घटता रहा.
यूँ कलेजा हमारा ........धड़कता रहा.
--
उलझने रात सी ....क्यों पसरती रहीं.
वो दरम्याँ बदलियों .... भटकता रहा.
--
टिमटिमाता सितारा रहा... भोर तक. 
शब सरे आसमा को.... खटकता रहा.
-- 
उस हवेली पे जलता था... कोई दिया
बन पतंगा सा उस पे.... फटकता रहा.
--
चन्द साँसें अभी हैं...... बचीं रात की.
कोई सपनों में फिर भी. अटकता रहा.
--
उस झरोखे से दी थी..... किसी ने सदा.
सर्प रस्सी से तुलसी .......लटकता रहा.
**हरिवल्लभ शर्मा दि.05.09.2014

(मौलिक एवं अप्रकाशित )

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Comment by harivallabh sharma on September 7, 2014 at 1:22am

आदरणीय Nilesh Shevgaonkar जी आपने मतले में ईता दोष बताया तो संभवतः मुझे भी अंदेशा तो है....ग़ज़ल में सभी शेरों में +अता का निर्वाह हुआ है..इस कारन ..फिर भी आप और विद्वज्जन जैसा निर्देश दें..आपने सुझाया ..बहुत आभार.

Comment by harivallabh sharma on September 7, 2014 at 12:25am

आदरणीय Shyam Narayan Verma जी ग़ज़ल को मान देकर प्रोत्साहित किया आपने बहुत आभार.

Comment by Nilesh Shevgaonkar on September 6, 2014 at 5:30pm

बहुत खूब आदरणीय ..
मै sure नहीं हूँ लेकिन मतले में ईता दोष लग रहा है ..गुरुजन मार्गदर्शन करें 
सादर 

Comment by Shyam Narain Verma on September 6, 2014 at 4:12pm
" बहुत खूब ! इस सुंदर गजल हेतु बधाई स्वीकारें । "
Comment by harivallabh sharma on September 6, 2014 at 1:46pm

आदरणीय डॉ.गोपाल नारायन श्रीवास्तव साहब ग़ज़ल पर आपका स्नेह पाकर अभिभूत हुआ प्रोत्साहन हेतु विनम्र आभार आपका.

Comment by harivallabh sharma on September 6, 2014 at 1:43pm

आदरणीय laxman dhami जी आपने ग़ज़ल को मान देकर हौसला बढाया आपका हार्दिक आभार.

Comment by harivallabh sharma on September 6, 2014 at 1:41pm

आदरणीय Narendra Sinh Chauhan साहब बहुत आभार ..ग़ज़ल को मन देकर हौसला बढाया...बहुत शुक्रिया.

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on September 6, 2014 at 12:18pm

हरिवल्लभ जी

बेहतरीन गजल i

चन्द साँसें अभी हैं...... बचीं रात की.
कोई सपनों में फिर भी. अटकता रहा.
उस झरोखे से दी थी..... किसी ने सदा.

सर्प रस्सी से तुलसी .......लटकता रहा.

 

Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on September 6, 2014 at 11:07am

चन्द साँसें अभी हैं. बचीं रात की.
कोई सपनों में फिर भी. अटकता रहा
उस झरोखे से दी थी किसी ने सदा.
सर्प रस्सी से तुलसी लटकता रहा


आदरणीय भाई हरिबल्लभ जी इन असआरों ने मन में गहरे असर किया हार्दिक बधाई स्वीकरें ।

Comment by harivallabh sharma on September 5, 2014 at 11:43pm

आदरणीय Dr.Vijay Shanker जी हार्दिक आभार आपने ग़ज़ल के अशआर पसंद कर हौसला अफजाई की...बहुत शुक्रिया.

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