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रूप अनूप निहारा करूँ /// सवैय्या

 विधान : 7  सगण + 1 एक रगण (कुल 24 वर्ण )

 

घन राति अमावस पावस की तम तोम म बैठि  गुजारा करूँ I 

गुनिकै मन मे रतनाकर के जल नील क नक्श उतारा करूँ  I

सुषमा नभ की अवलोकि सदा मन में यहु भाव विचारा करूँ I

जग माहि रचा व बसा   प्रभु  का वह रूप अनूप निहारा करूँ I

 

*                                         *                                     *

करि सम्पुट नैन भली विधि सों, प्रभु को धरि ध्यान निहारा करूँ I

कछु भक्ति करूँ, कछु ध्यान धरूँ, तन छार करूँ, मन मारा करूँ I

जब   प्रेम  सुपीर  जगै   उर  में   तब  जाय   क  रंचु  सहारा  करूँ I

प्रभु   चंद्रहि   चातक  की   तरियो  वह   रूप   अनूप   निहारा   करूँ I     

(मौलिक व अप्रकाशित )

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Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on September 7, 2014 at 11:27am

चौहान जी

आपने सवैये को अनुमोदित किया i अहोभाग्य i सादर i

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on September 7, 2014 at 11:25am

विजय सर !

सवैय्ये के अनुमोदन हेतु आभार i सादर i

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on September 7, 2014 at 11:24am
हरिवल्लभ जी
आपका आभार प्रकट करता हूँ i
Comment by Sulabh Agnihotri on September 6, 2014 at 5:14pm

सुंदर भावपूर्ण प्रवाहमयी सवैय्या, हार्दिक बधाई।

Comment by Shyam Narain Verma on September 6, 2014 at 4:16pm
" सुन्दर भाव पूर्ण रचना के लिये आपको बधाइयाँ .................. "
Comment by अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव on September 6, 2014 at 12:49pm

आदरणीय गोपाल भाईजी,

सुंदर भावपूर्ण प्रवाहमयी सवैय्या, हार्दिक बधाई।

जो शब्द ज्यादा प्रचलित नहीं या कठिन हो उसके मायने लिख देने से पाठकों को सुविधा होती है। 

आदरणीय वार्णिक छंद मे  म  और क को में और के तो किया ही जा सकता है। प्रवाह में बाधक भी नहीं है। 

सादर 

Comment by Neeraj Neer on September 6, 2014 at 11:29am
बहुत श्रेष्ठ ॥ बहुत प्रवाहमयी ॥ हार्दिक बधाई आदरणीय .....
Comment by Dr. Vijai Shanker on September 5, 2014 at 9:25pm

जग माहि रचा व बसा प्रभु का वह रूप अनूप निहारा करूँ I
प्रभु चंद्रहि चातक की तरियो वह रूप अनूप निहारा करूँ I
आकर्षक , बधाई आदरणीय डॉ o साहब।

Comment by harivallabh sharma on September 5, 2014 at 8:45pm

अति सुन्दर सवैया छंद आदरणीय अत्यंत प्रवाहमान ..भावपूर्ण.

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