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कुछ भी कह लो मित्र तुम , विष जब आये काम

सिर्फ दोष अपने कहो , क्यों होते हैं आम

 

कौन काम को देख के , अब देता है दाम  

थोड़ा मक्खन, साथ में , है जो सुन्दर चाम 

 

सूर्य समय से डूब के , खुद कर देगा शाम

नाहक़ बदली हो रही , हट जा, तू बदनाम

 

सबकी मंज़िल है अलग , अलग सभी के धाम  

फिर क्यों छोड़ा साथ वो , पाता  है  दुश्नाम

 

हवा रुष्ट आंधी हुई , धूल उड़ी हर गाम  

कितने नामी के हुये , धूमिल सारे  नाम  

****************************************

मौलिक एवँ अप्रकाशित

 

 

 

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Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on August 7, 2014 at 11:27am

मित्रवर

आपकी प्रतिभा सब जानते है i इसलिए कहता हूँ आपने दोहों को समय कम दिया i  फिर भी कुछ दोहे बहुत अच्छे हैं i जैसे -

हवा रुष्ट आंधी हुई , धूल उड़ी हर गाम  

कितने नामी के हुये , धूमिल सारे  नाम

दुश्नाम  के स्थान पर दुर्नाम अपेक्षित है जैसे -दुर्दान्त , दुर्निवार, दुर्वचन  आदि i  आपसे  फिर नए दोहों की  अपेक्षा करता हूँ i सादर i  

 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 7, 2014 at 10:31am

वाह वाह ! आदरणीय गिरिराज भाईजी के दोहो से दिन प्रारम्भ हुआ !
पहली बधाई तो यहीं.

कुछ भी कह लो मित्र तुम , विष जब आये काम
सिर्फ दोष अपने कहो , क्यों होते हैं आम.. . .  ... . .. . इस दोहे में तनिक और संप्रेषणीयता की आवश्यकता महसूस हो रही है, भाईजी. या मुझे ही स्पष्ट नहीं हुआ. विष जब आये काम के साथ अपने दोष का आम होना उलझन में डाल रहा है.

कौन काम को देख के , अब देता है दाम  
थोड़ा मक्खन, साथ में , है जो सुन्दर चाम................ .. .  .आय-हाय, आय-हाय ! सही बात, सही बात ! इसे बोलचाल में मक्खनपालिस का नमूना कहते हैं.  

सूर्य समय से डूब के , खुद कर देगा शाम
नाहक़ बदली हो रही , हट जा, तू बदनाम ................. . ...  हम्म्म ! बात जहाँ पहुँचनी है भाईजी, तनिक कसर के साथ पहुँच पा रही है. बदली भले सूरज को लाख ढक ले, उस छाँह को शाम नहीं कहते. हाँपहला पद अत्यंत संभावनाओं से भरा पद है. दूसरा विषम चरण तक कथ्य् अतार्किक है. दूसरे सम चरण को तनिक और घुमाव चाहिये, ऐसा प्रतीत हो रहा है, आदरणीय

सबकी मंज़िल है अलग , अलग सभी के धाम  
फिर क्यों छोड़ा साथ वो , पाता  है  दुश्नाम ............ .. . .  दुश्नाम ? या होता है बदनाम.. दुश्नाम से अधिक सटीक दुर्नाम है.  दोहे के माध्यम से बात बढिया निकल रही है.

हवा रुष्ट आंधी हुई , धूल उड़ी हर गाम  
कितने नामी के हुये , धूमिल सारे  नाम ... .  ....................... वाह वाह वाह ! इस दोहे का ज़वाब नहीं, आदरणीय ! जो कहना था आप कह गये और क्या खूब कह गये ! हवा के बौखने, धूल के उड़ने और अच्छे-भले नामों के बलात् धूसरित होने के बिम्ब ने आज के दौर को बढिया शाब्दिक किया है.

इस प्रस्तुति और प्रयास के लिए हार्दिक बधाई भाईजी.
शुभ-शुभ
 

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