For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

लोला

         तीन साल बाद अपने पैतृक आवास की ओर जाते हुए बड़ा अन्यमनस्क था मै I इससे पहले आख़िरी बार पिताजी की बीमारी का समाचार पाकर उनकी चिकित्सा कराने हेतु यहाँ आया था I हालाँकि  हमारी तमाम कोशिशे कामयाब नहीं हुयी थी और हम उन्हें बचा नहीं सके थे I मेरी भतीजी उस समय तीन या चार वर्ष की रही होगी I पिता जी की दवा और परिचर्या के बाद जो भी थोडा समय मिलता, वह मै अपनी भतीजी के साथ गुजारता I उसे बाँहों में लेकर जोर से उछालता I वह खिलखिलाकर हंसती थी I मै प्यार से उसे ‘लोला’ कहता था I लोला यानि कि चंचला I उसे इस नाम से केवल मै पुकारता था I घर के अन्य लोगो को शायद यह नाम पसंद नही था I पिता जी की परिचर्या का क्रम लगभग चालीस दिन चला और इतना ही लोला से मेरा क्रीड़ा-व्यवहार भी  I लोला मुझसे इस सीमा तक हिल चुकी थी कि उसे मेरे बगैर चैन ही नहीं आता था I वह जब भी मुझे देखती बाहे फैलाकर दौड़ पड़ती I मै भी उसे भुजाओ में उठाकर आत्ममुग्ध हो जाता था I

          पिता जी का निधन होते ही परिस्थितियां एकाएक बदली I भाई साहेब ने बंटवारे का बिगुल बजाया I खेत-पात अलग हुए I घर के भी दो हिस्से हुए I आँगन और कुछ भाग बांटे नहीं जा सके, उन्हें शरीकाना रखा गया I इन सबसे निपटकर मै खिन्नमना अपने हिस्से में ताला लगाकर परिवार सहित अपनी नौकरी पर शहर लौट गया I तब से लगभग दो साल बाद मै घर वापस आने की मनःस्थिति में आ सका था, वह भी खेती के किसी नए विवाद के कारण I

          घर पहुँचने पर मुझे लगा की घर का वातावरण अब मेरे लिए वैसा नहीं था जैसा पिता जी के समय में हुआ करता था I यही सोचता हुआ मै आगे बढ़ा I छोटा भाई होने के कारण मुझे कुछ संकोच तो था नहीं I मै बेसाख्ता दहलीज पार कर आंगन में आ गया I मैंने देखा कि लाल रंग के फ्राक में लगभग पांच या छः वर्ष  की एक लडकी पड़ोस के किसी समवय लड़के के साथ एक निश्चित गोल दायरे में आगे-पीछे दौड़ रही थी I मुझे लोला को पहचानने में जरा भी देर नहीं लगी I मैंने तत्क्षण  पकड़कर उसे हवा में उछाल दिया I लोला ने भय और विस्मय से इस आकस्मिक व्यवधान को देखा I हवा से जब वह पुनः मेरी  बाहो में आयी तो उसने अपने को छुड़ाने का यत्न भी किया I तभी अचानक उसकी निगाह मेरे चेहरे पर आकर टिकी और मानो कुछ देर के लिए स्थिर हो गयी I उसका प्रयास एकायक ढीला पड़ गया I फिर उसके कांपते मुख से एक ही शब्द निकला- ‘लोला’

          मुझे लगा यह आवाज दूर कही किसी अन्तरिक्ष से आई हो I पल भर के लिए मै अपनी सुध-बुध भूल बैठा I लोला अचानक मेरे कंधे से चिपक कर हिलक-हिलक कर रोने लगी I मै कुछ सोच पाता इससे पहले अचानक बाहर से किसी के आने की आहट सुनायी दी I यह भाभी थी जो शायद किसी काम से बाहर गयी हुयी थी I उन्हें लोला से मेरी यह अंतरंगता अच्छी नहीं लगी I बंटवारे के बाद दिल जो बंट जाते हैं I मैंने आगे बढ़कर भाभी के पैर छुए i मुझे यह याद नहीं की उनकी क्या प्रतिक्रिया थी I पर मेरे ह्रदय में एक अव्यक्त हाहाकार अंगडाइयां ले रहा था I उसे भरसक दबाते हुए मैंने स्वय से कहा-‘’ जमाना कितना ही खुदगर्ज हो जाये बेटी पर तू  मेरे लिए सदा ‘लोला’ ही  रहेगी i ‘’      

 

(मौलिक व् अप्रकाशित )

Views: 4794

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

Comment by Dr. Vijai Shanker on August 7, 2014 at 11:24am
सुन्दर कहानी हेतु बधाई आदरणीय डॉ o गोपाल नरायन जी .

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on August 7, 2014 at 11:15am

जी आदरणीय समझ गई ,पुनः बधाई देती हूँ इस सुन्दर कहानी पर |

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on August 7, 2014 at 11:12am

आहूजा जी

आपने सही कहा i आपका शत -शत आभार i

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on August 7, 2014 at 11:11am

आदरणीय सौरभजी

आपकी यह पंक्ति ह्रदय को छू  गयी -

ये ’लोलाएँ’ हमारे जीवन में कई रूपों-संज्ञाओं में आया करती हैं.  बाद में, ये भी बड़ी हो जाती हैं. 

ऐसी मार्मिक टीप आप ही कर सकते हैं  श्रीमन i सादर आभार i

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on August 7, 2014 at 11:08am

सविता जी

आपका बहुत-बहुत आभार i

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on August 7, 2014 at 11:07am

महनीया

 संस्मरण भोगा  हुआ सत्य होता है i पर यह कहानी पूर्णतः काल्पनिक है i इसलिए इसे संस्मरण मैने  नहीं माना  i यह लिखी प्रथम पुरुष में ही गयी है i पर यह प्रचलन में है i  आपका आभार  माननीया i सादर i

Comment by rajkumarahuja on August 6, 2014 at 11:25pm

माननीय गोपालनारायण जी, कदाचित आज यह घर-घर कि कहानी हो गई है ! बटवारे के बाद संपत्ति ही नहीं वरन दिल भी बंट जाते हैं ! एक भाव-पूर्ण कहानी ! साधुवाद ........


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on August 6, 2014 at 9:55pm

इस छोटी कहानी को पढ़ कर देर तक सोचता रहा... . ये जीवन है, इस जीवन का यही है रंग-रूप.. !

ये ’लोलाएँ’ हमारे जीवन में कई रूपों-संज्ञाओं में आया करती हैं.  बाद में, ये भी बड़ी हो जाती हैं. 

हृदय से बधाई स्वीकार करें, आदरणीय गोपालनारायनजी. 

सादर

Comment by savitamishra on August 6, 2014 at 8:03pm

बहुत भावुक कहानी सच है बंटवारे के बाद दिल जो बंट जाते हैं


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on August 6, 2014 at 7:41pm

मुझे ये कहानी न लगकर एक संस्मरण लगा खैर जो भी है पढ़ते- पढ़ते भावुक हो गई सच में बच्चे स्वार्थ ,भेदभाव ,स्वार्थपरता इन सब कडवाहट से बहुत दूर होते हैं बहुत मासूम होते हैं स्नेह के स्पर्श को पहचानते हैं कहानी का अंतिम भाग जब लोला ने पहचान लिया ,ह्रदय को छू गया बहुत-बहुत बधाई आपको इस को साझा करने के लिए आ० डॉ गोपाल नारायण जी  

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Activity

Admin replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-109 (सियासत)
"स्वागतम"
1 hour ago
Vikram Motegi is now a member of Open Books Online
9 hours ago
Sushil Sarna posted a blog post

दोहा पंचक. . . . .पुष्प - अलि

दोहा पंचक. . . . पुष्प -अलिगंध चुराने आ गए, कलियों के चितचोर । कली -कली से प्रेम की, अलिकुल बाँधे…See More
9 hours ago
अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आदरणीय दयाराम मेठानी जी आदाब, ग़ज़ल पर आपकी आमद और हौसला अफ़ज़ाई का तह-ए-दिल से शुक्रिया।"
yesterday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. भाई दयाराम जी, सादर आभार।"
yesterday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. भाई संजय जी हार्दिक आभार।"
yesterday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. भाई मिथिलेश जी, सादर अभिवादन। गजल की प्रशंसा के लिए आभार।"
yesterday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. रिचा जी, हार्दिक धन्यवाद"
yesterday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आ. भाई दिनेश जी, सादर आभार।"
yesterday
Dayaram Methani replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-166
"आदरणीय रिचा यादव जी, पोस्ट पर कमेंट के लिए हार्दिक आभार।"
yesterday
Shyam Narain Verma commented on Aazi Tamaam's blog post ग़ज़ल: ग़मज़दा आँखों का पानी
"नमस्ते जी, बहुत ही सुंदर प्रस्तुति, हार्दिक बधाई l सादर"
yesterday
Shyam Narain Verma commented on मिथिलेश वामनकर's blog post ग़ज़ल: उम्र भर हम सीखते चौकोर करना
"नमस्ते जी, बहुत ही सुंदर प्रस्तुति, हार्दिक बधाई l सादर"
yesterday

© 2024   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service